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कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन ६. 'जलबुद्बद्वज्जीवा :-'जल के बबूले के समान आत्मा शीघ्र नष्ट
हो जाती है।' यही बात सर्वदर्शनसंग्रह में भी इस दर्शन के प्रतिपादन के प्रसंग में कही गयी है
अत्र चत्वारि भूतानि भूमिवायुरनलानिलाः । चतुर्व्यः खलु भूतेभ्यश्चैतन्यमुवजायते ।।। किण्वादिभ्यः समंतेम्यो द्रव्येभ्यो मदशक्तिवत् । अहं स्थूलः कृशोऽस्मीति सामानाधिकरण्यतः ।। देहस्थौल्यादियोगाच्च स एवाऽऽत्मा न चापरः ।
(स० सं० पृ० ३) अनेकान्तवादी (जैनदर्शन)
विजयपुरी के मठ में छात्रों को 'जीव, अजीव आदि पदार्थों में द्रव्यस्थित पर्याय को मानने वाले, नय का निरूपण करने वाले, नित्य, अनित्य को अपेक्षाकृत मानने वाले अनेकान्तवाद को पढ़ाया जा रहा था ।२ उद्द्योतन द्वारा प्रस्तुत इस सन्दर्भ से ज्ञात होता है कि जैन दर्शन के लिये उस समय अनेकान्तवाद शब्द प्रयुक्त होता था, जिसमें सप्त पदार्थनिरूपण, स्याद्वादनय, जगत् की नित्यता-अनित्यता आदि पर विचार जैसे सिद्धान्त सम्मिलित थे। प्रस्तुत प्रसंग में यह विचारणीय है कि 'अनेकान्तवाद' शब्द कब से इस दर्शन में प्रयुक्त हुआ तथा आचार्य अकलंक का इसके साथ क्या सम्बन्ध था, जिसके सम्बन्ध में उद्योतन ने कोई संकेत नही दिया है। दोनों ही आचार्य आठवीं शताब्दी के होने के कारण, इस प्रश्न पर विचार करना महत्त्वपूर्ण हो जाता है। हरिभद्रसूरि ने अनेकान्तवाद' शब्द का प्रयोग किया है। इसके पूर्व भी इस शब्द के प्रयुक्त होने की सम्भावना है।
__ जैनधर्म एवं दर्शन के सम्बन्ध में उद्योतन ने ग्रन्थ में यत्र-तत्र पर्याप्त जानकारी दी है, जिसके अध्ययन से तत्कालीन जैनधर्म का स्वरूप स्पष्ट होता है । इस सम्बन्ध में आगे विवरण प्रस्तुत किया गया है । सांख्य (योग) दर्शन
सांख्य दर्शन से सम्बन्धित जानकारी कुवलयमाला के दो-तीन प्रसंगों से मिलती है। दक्षिण भारत के उक्त मठ में 'उत्पत्ति, विनाश से रहित अवस्थित, नित्य, एक स्वभावी पुरुष का तथा सुख-दुःखानुभव रूप प्रकृति विशेष (वैषम्यावस्था को प्राप्त प्रकृति) को बतलाते हुए सांख्य-दर्शन का व्याख्यान हो रहा
१. डा० उमेशमिश्र, भारतीय दर्शन, पृ० ८६. २. कहिंचि जीवाजीवादि-पयत्थाणुगय-दव्वठ्ठिय-पज्जाय-णय-णिरूवणा-विभागो-वालद्ध
णिच्चाणिच्चाणेयंतवायं परूवेंति । -१५१.१.