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राजप्रासाद स्थापत्य
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मंदिर - उद्यान - वापी - कुव० में मंदिर - उद्यान वापी का दो प्रसंगों में उल्लेख है | रानी प्रियंगुश्यामा ने वासभवन में सोते हुए स्वप्न देखे । तभी पटु-पटह के वजने से मंदिर उद्यानवापी के हंस जाग गये और कंठ कलरव की मीठी आवाज से रानी जाग गयी ।' कुवलयचन्द्र और कुवलयमाला ने विवाह के बाद वासभवन में सुखद वार्तालाप करते हुए रात्रि व्यतीत की। तभी मंदिर - उद्यान वापी के कलहंस एवं सारस पटह के शब्दों को सुनकर मधुर आवाज करने लगे । तूर बजा । मंगलपाठकों ने मंगल पढ़े । वार- विलासिनी मुख धुलवाने तथा मंजन कराने आ गयीं (१७३.१८-२१) ।
इस वर्णन से ज्ञात होता है कि वासभवन के नजदीक ही उद्यान होता था, जिसमें वापी बनायी जाती थी, जो हंस एवं सारस पक्षियों का निवास स्थान थी । वासभवन के समीप में होने से ही इसे मंदिर उद्यानवापी कहा गया है । यद्यपि धवलगृह में अन्य वापियां भी होती थीं ।
क्रीडाशैल - क्रीडाशैल का दो बार उल्लेख हुआ है । कोशाम्बी नगरी के क्रीडाशैल की प्रसिद्धि देवताओं में भी थी । समुद्र में राक्षस द्वारा जहाज इस प्रकार तोड़कर फेंका गया मानों रत्नों की वर्षा हो रही हो । मुक्ताफल चमक रहे हों तथा श्वेत ध्वजा उड़ रही हो, जैसे किसी क्रीड़ाशैल का टुकड़ा गिर रहा हो । यहां क्रीड़ाशैल के सम्बन्ध में उद्योतन ने कोई विशेष परिचय नहीं दिया । ज्ञात होता है कि तत्कालीन राजकीय प्रासादशिल्प में क्रीड़ाशैल का निर्माण पर्याप्त प्रचलित था । बाण की कादम्बरी एवं हर्षचरित में क्रीड़ाशैल के वर्णन के अनुसार यह भवन उद्यान के समीप ही अन्तःपुर के किसी भाग में बनाया जाता था । क्रीड़ाशैल नाम से ही स्पष्ट है कि इसका निर्माण भवन के ऊपरी भाग में होता था । क्रीडाशैल नामक भवन में एक मणिमंदिर भी होता था, जहां आमोद-प्रमोद की सभी वस्तुएं उपलब्ध होती थीं तथा जो स्थापत्य की दृष्टि से भी सर्वाधिक सुन्दर कमरा होता था । कालिदास ने यक्षिणी के प्रागार की वापी के तट पर कोमल इन्द्रनील मणियों से रचित शिखर तथा कनककदलियों के वेस्टन से प्रेक्षणीय क्रीडाशैल का वर्णन किया है । "
देवगृह - - राजप्रासाद का देवगृह एक प्रमुख अंग था, जहां राजपरिवार के लोग पूजन-दर्शन आदि धार्मिक क्रियाएं करते थे । देवगृह में स्थापित देवता को कुलदेवता कहा जाता था | उद्योतनसूरि ने कुलदेवता तथा देवगृह का अनेक १. पहय-पडु -पडह-पडिरव-संखुद्ध - विउद्ध-मंदिरुज्जाण - वावी - कलहंस-कंठ - कलयलारावरविज्जंत - सविसेस - सुइ-सुहेणं पडिबुद्धा देवी । — १६.१०
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३.
कीलासेलं ति इमं जीय णिसम्मंति गयणयरा । ३१.२०
णिवडंत - रयण- णिवहं मुत्ताहल - धवल-सोहिओऊलं ।
धुव्वंत - घया-धवलं कीला सेलस्स खंड व ॥ —६९.३
द्रष्टव्य, अ० - का० सां० अ०, पृ० ३७१.
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५. मेघदूत, २.१७.