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कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन - वापी-उद्द्योतन ने घरवापी (८.८), मंदिरउद्यान वापी (१६.१०), क्रीड़ावापी (९४.१२), द्वारवापी (९७.५), उद्यानवापी (१६६.२६) तथा वापीकामिनी (२४०.१६) का कुवलयमालाकहा में वर्णन किया है। घरवापी के कुमुद युवतियों के मुख-चन्द्रों को देखकर बन्द नहीं होते थे।' सौधर्मकल्प स्वर्ग में लोभदेव क्रीडावापी में स्नान करने आता है। उस मंजनवापी (६४.१४) का फर्श अनेक रंगों की मणियों से बना था, जिनकी किरणों में इन्द्रधनुष दिखायी पड़ता था। उसके किनारों पर उगे वृक्षों एवं लताओं के पुष्पों से दिशाएँ सुरभित हो रहीं थीं। उसकी सीढ़ियाँ मणियों से बनी थीं, जिनपर रखी हुई स्वर्ण प्रतिहारी श्रीदेवी जैसी शोभित हो रही थी। जिस स्वर्ण के ऊँचे तोरण बने थे। उसमें लटकती हुई घंटियों को माला हवा से हिलने पर मधुर शब्द कर रही थी। उसके परकोटे में अनेक गवाक्ष एवं निर्गमद्वार बने हुए थे। इस प्रकार वह वापी सुर-वधू के समान थी-दिट्ठा वावी सुर बहु व्व (९४.१६,२३) । इस वापी में जलयन्त्र भो लगे हुए थे-जल-जंत-णीर भरियं (९४.३१)।
समवसरण-रचना में द्वार-संघात के बाद स्वर्ण के कमल, कुमद आदि से युक्त स्वच्छ जल से भरी हुई द्वारवापी भी बनायी गयी थी।२ कामगजेन्द्र विद्याधर-कन्याओं को जलांजली देने कामिनी सदृश वापी में उतरता है, जो स्वच्छ जल से भरी हुई थी।
उक्त विवरण से ज्ञात होता है कि वापी दोर्घिका का ही एक अंग थी। राजप्रासाद में वह जलक्रीड़ा एवं स्नान के लिए प्रयुक्त होती थी। वह जल से पूर्ण एवं स्वर्ण कमलों से युक्त होती थी। वापी में जलक्रीड़ा के लिए जलयन्त्र भी लगाये जाते थे तथा वापी के जल को अनेक छोटी-छोटी नहरों एवं छिद्रों द्वारा अन्यत्र पहुँचाया जाता था। वापियों में कमल को शीभा का वर्णन प्राचीन भारतीय साहित्य में बहुत हुआ है। बाण ने कादम्बरो में कमलयुक्तवापी को कमलवन-दीपिका कहा है। सोमदेव ने भी कमलयूक्त वापी का उल्लेख किया है। इन वापियों का उपयोग हंसों के रहने के लिये एवं भांति-भांति के पुष्पों की शोभा के लिए भी होता था।
उक्त विवरण में लटकती हुई घांटियों की माला का उल्लेख महत्त्वपूर्ण है। प्राचीन भारत में राजकीय आमोद-प्रमोद में इनका प्रमुख स्थान था। कादम्बरी में कुसुमदामदोला के वर्णन में इन घंटियों के लटकने का उल्लेख हरा है। आजकल इन्हें फूलडोल कहते हैं, जो मथुरा-वृन्दावन के मंदिरों में भगवान् के लिए बनाये जाते हैं। १. जुवईयण""घरवावी-कुमुयाई मउलेउं णेय चाएंति। -८.८.
अच्छच्छ-वारि-भरिया रइया दारेसु वावीओ-९७.५.
इमाए सच्छच्छ-खीर-वारि-परिपुण्णाए""वावी कामिणीए-२४०, १४-१६. ४. 'वनस्थलीष्विव सकमलासु'-यशस्तिलकचम्पू, पूर्वा०, पृ० ३८.
अ०-का० स० अ०, पृ० ३७६.