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कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन था। कुवलयमाला ने कुमार से उसका भेद करते हुए कहा है-कुमार तो मधुर भाषी, सुन्दर और हदय जीतने वाले हैं. जबकि यह निष्ठर वचन बोलनेबाला, विषदल से निर्मित शरीरवाला तथा जीवनहरण करने वाला है।' बंजुल नामक यह अधिकारी तुरन्त ही कुवलयमाला को कुमार के पास से अन्तःपुर में ले जाता है। इससे ज्ञात होता है कि कन्या-अन्त:पुर पालक के प्रबन्ध में शिथिलता नहीं होती थी । वही एकमात्र पुरुष कुमारी-अन्तःपुर में नियुक्त था और किसी भी पुरुष का प्रवेश वहाँ निषिद्ध था । स्त्रीवेष बनाकर वहां जाने में कुवलयचन्द्र भी वहाँ की दण्ड-व्यवस्था के कारण साहस नहीं कर सका।२ महाकवि वाण ने यद्यपि कादम्बरी के अन्तःपुर का विस्तृत वर्णन किया है। किन्तु कहीं बूढे कंचुकी के अतिरिक्त किसी अन्य पुरुष अधिकारी का उल्लेख नहीं है । सम्भवतः ८ वीं सदी में अन्तःपुर की सुरक्षा और दृढ़ कर दी गयी थी।
बाल-वृक्षवाटिका एवं गृहशकुनशावक-उद्द्योतन ने कुवलयमाला के निजी भवन के साथ बाल वृक्षवाटिका (१८०.२६) तथा घर के पक्षियों के बच्चों (१८१.२५) का भी उल्लेख किया है, जिनसे विदा होते समय कुवलयमाला गले मिलती है। प्राचीन भारतीय साहित्य में यह एक प्रचलित अभिप्राय है । स्थापत्य में भी इसको गुप्तकाल तक स्थान मिल चुका होगा और कुमारी-अन्तःपुर का इसको अंग मान लिया गया होगा।
प्रापानक-भूमि-राजकुल का वर्णन करते समय उद्द्योतनसूरि ने आपानकभूमि का उल्लेख किया है। कुवलयचन्द्र का नामसंस्करण सम्पन्न होते ही राजा दृढवर्मन् स्नान कर आपानभुमि में जा बैठा । आपानकभूमि विविध प्रकार के पुष्पों की रचना से शोभित थी। ताजे नीलकमल के पराग से विशिष्ट मधु तैयार की गयी थी। कर्पूर एवं केशर मिश्रित स्वच्छ विशिष्ट आसव दिये जा रहे थे। जैसे ताजे जातिपुष्पों की सुरभि पर भँवरे मंडराते हैं वैसे ही सुराओं के रस से लोग उत्कंठित हो रहे थे। राजा ने यथेष्ट मदिरापान किया। मदनमहोत्सव के प्रारम्भ होते ही नागर लोग मदिरा पीते एवं गीत गाते थे (५१.३४)। ग्राम तरुणियाँ भी पुरानी सुरा का पान कर मदोन्मत अवस्था में प्रलाप करने लगती थीं।
एक अन्य प्रसंग में मदिरापान के दुष्परिणाम का वर्णन ग्रन्थ में आया है। दर्पफलक को राजा न बनाने के लिए उसकी सौतेली माँ, मन्त्री और वैद्य से १. दिट्ठो य सो वंजुलो कण्णंतेउर-पालओ । तेण य खर-णिठुर-कक्कसेहिं वयणेहि
अंबाडिऊण..."विसदल-णिम्मिय-देहो-(१६८.१५-१८). २. महिला-वेसं को णाम कुणइ जा अत्यि भुय-दण्डो-कुव० १५८.२९. ३. समुट्ठिओ राया कय-मज्जणो उवविठ्ठो आवाणय भूमि"पाऊण य जहिच्छं.
-२०.२७-३०. ४. सरिस-गाम-जुवई-तरुणीहिं जुण्ण-सुरा-पाण-मउम्मत्त-विहलालाव जंपिरीहिं काहिं
वि हसिआ।-५२.१६.