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राजप्रासाद स्थापत्य
३१९ कुमारीअन्तःपुर (१६४.८, १६८.८)-कुवलयमाला में कुमारी कुवलयमाला के अन्तःपुर का उल्लेख है। यह कन्या-अन्तःपुर रानियों के अन्तःपुर से भिन्न होता था। राजा विजयसेन अन्तःपुर के ऊपरी भाग (भवणनिज्जूहए) में बैठकर कुमार कुवलयचन्द्र और जयकुंजर हाथी का युद्ध देख रहा था । जयकुंजर को वश में करने के बाद उसने कुवलयचन्द्र को अपने पास बुलाया और कुवलयमाला से उसके अन्तःपुर में चले जाने के लिए कहा (१६४.८)। कुवलयमाला अपने अन्तःपुर में चली गयी-(१६४.१३)। उद्योतनसूरि ने कुवलयचन्द्र एवं कुवलयमाला के प्रथम दर्शन से लेकर उनके विवाह सम्पन्न होने तक का जो वर्णन किया है उससे कुमारी-अन्तःपुर के सम्बन्ध में निम्नोक्त जानकारी मिलती है :
___ युवति राजकन्याओं के लिए जो विशेष आवास होते थे उन्हें अन्तःपुर या कन्या-अन्तःपुर कहा जाता था। महाकवि बाण ने इसी के लिए कुमारीपुरप्रासाद एवं कन्या-अन्तःपुर शब्दों का प्रयोग किया है-(कादम्बरी, पृ० १४७, १५१)।
कुमारीअन्तःपुर की सुरक्षा एवं प्रबन्ध के लिए निपुण स्त्री-कर्मचारियों की नियुक्ति होती थी । दारिका (१६०.८), कंचुकी (१६५.१), चेटी (१६७.११), विलासिणी (१६७.१४) एवं धात्री (१६१.२६) उनमें प्रमुख थीं। रानियों के अन्तःपुर में जो महत्त्व महत्तरिका का होता था वही कुमारी-अन्तःपुर में धात्री का । कुवलयचन्द्र से कुमारी-अन्तःपुर की धात्री भोगवतो का परिचय कराती हुई दारिका कहती है.--'कुमार, यह कुवलयमाला की जननी, धात्री, प्रियसखी, किंकरी, शरीर, हृदय एवं जीवन है।' कालिदास ने भी कुमारी की रक्षिका को धात्री (रघु० ६.८२), जन्या (रघु० ६.३०), सखो (६.८२) कहा है । अतः यह कुमारीअन्तःपुर की अधिकारिणी अन्तःपुर की रक्षा तो देखती ही थी, कुमारी की प्रत्येक देखभाल का भार भी उसी पर होता था। भोगवती यद्यपि मध्य वयवाली स्त्री थी, किन्तु कुमारी कुवलयमाला के लिए वह सखी सदृश थी। उसका कुवलयचन्द्र से मिलन कराने की पूरी व्यवस्था वह अपनी जिम्मेवारी पर करती है।
कुमारी-अन्तःपुर का आन्तरिक संरक्षण भोगवती के अधिकार में अवश्य था, किन्तु उसे कुमारी अन्तःपुर के प्रधान रक्षक का भी ध्यान रखना पड़ता था। उद्द्योतनसूरि ने उसे कंण्णतेउर-महल्लओ (१६८.९) एवं कण्णंतेउर-पालो (१६८.१५) कहा है। यह कन्या-अन्तःपुरपालक वृद्धवय का कुरूप व्यक्ति होता १. कुमार, एसा कुवलयमालाए जणणी धाई पियसही किंकरी सरीरं हिययं जीवियं
व । कुव० -१६१.२६. कुमार, जइ तुब्भे राइणो भवणुज्जाणं वच्चह, तओ अहं कुवलयमालं कहं-कहं पि केणावि वा मोहेणं गुरुयणस्स महिल्लयाणं च तम्मि उज्जाणे णेमि । -कुव० १६५.३०.