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राजप्रासाद स्थापत्य
३२१ मिलकर उसे मद्य में मरण-फल (सम्भवतः धतूरे के बीज आदि) मिलाकर पिला देती है।' उस मद्य को पीते ही दर्पफलक पागल हो जाता है और इधर-उधर भटकता हुआ शराबियों की तरह प्रलाप करता रहता है (१४५.११-१३)। उद्योतन ने डूबते हुए सूर्य की उपमा भी मदिरापान से प्रमत्त हाथ में लालकमल रूपी चषक लिए हुए किसी शराबी से दी है ।२ तथा म्लेच्छपल्ली में सुरापान करना यज्ञ करने के सदृश था-पुरोडासु-जइसनो सुरा-पाणु-(११२.२२)।
भोजन-मण्डप-राजकूल में भोजन-मण्डप अभ्यन्तर-आस्थानमण्डप, के समीप में होता था। उद्योतनसूरि ने इन प्रसंगों में इसका उल्लेख किया है। राजा दृढ़वर्मन् ने स्नानकर देवताओं की आराधना एवं परिजनों को प्रसन्नकर भोजन-मण्डप में प्रवेश किया तथा यथारुचि भोजन करके वह अभ्यन्तर आस्थानमण्डप में चला गया। अन्यत्र राजा दृढ़वर्मन् आपानकभूमि में यथेष्ट मद्यपान कर भोजनमण्डप में प्रवेश करता है एवं भोजन करके प्रास्थान-मण्डप में चला जाता है (२०.३०) । महापल्लि के भिल्ल-परिवार के गृहों में भी भोजनमण्डप की अलग व्यवस्था होती थी (१४५.२५) । अभ्यन्तर-आस्थानमण्डप
कुव० में अभ्यन्तर-उपस्थानमण्डप का इन प्रसंगों में उल्लेख हआ हैराजादृढ़वर्मन् कतिपय मित्र, मंत्रियों, परिवार के लोगों एवं रानी प्रियंगुश्यामा के. साथ 'अब्भंतरोवत्थाण-मंडव' में बैठा हुअा था, जहां प्रतिहारी ने आकर सुषेण नामक सेनापति के पुत्र के आगमन की सूचना दी। राजा निजी मामलों में मंत्रियों से इसो आस्थानमण्ड। में सलाह लेता था, जहां सुखपूर्वक बैठा जा सकता था (१३.१३, १४५.२५) । कुलदेवता से वरदान प्राप्ति के बाद भी राजा ने इसी स्थान पर मंत्री से सलाह लो (१५.१८, २३)। पुत्रजन्म के बाद राजा ने आपानक-भूमि में मद्यपान किया तदनन्तर भोजनकर आस्थान-मण्डप में प्राकर बैठ गया। वहां उसने विविध खाद्य, पेय, का आनन्द लेते हुए दान, विज्ञान, परिजन-कथा आदि कार्य करते हुए अपना दिन व्यतीत किया (२०.३०) ।
महाकवि बाण ने इस अभ्यन्तर-आस्थान-मण्डप को मुक्तास्थान-मण्डप कहा है, क्योंकि सम्राट भोजन के उपरान्त अपने अन्तरंग मित्रों और परिवार के साथ यहां बैठते थे । उद्योतनसूरि द्वारा इसे अभ्यन्तर-आस्थान-मण्डप कहने से स्पष्ट है कि यह राजकुल की अभ्यन्तर-कक्ष्या में स्थित होता था। भोजनमण्डप,
१. कालंतर-विडम्बणा-मरण-फलं दिण्णं च मज्झपाणं-१४४.३०. २. वारूणि-संग-पमत्तो पल्हत्थिय-रुइर कमल-वर-चसओ-७३.१७. ३. तओ व्हाय-सुइ-भूओ""णिसण्णो भोयण-मंडवे तत्थ जहाभिरुइयं च भोयणं भोत्तूण
आयंत-सुइ-भूओ णिग्गओ अब्भंतरोवत्थाण-मंडवं । -१५. १५-१८. ४. अण्णम्मि दिवसे अब्भंतरोवत्थाण-मंडवमुवगयस्स राइणो कइवय-मेत्त-मंति-पुरिस
परिवारियस्स पिय-पणइणी-सणाह...।-९.१८-२४. २१