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कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन (११.१५)। प्रियंगुश्यामा द्वारा स्वप्न देखने पर राजा दैनिक कार्य सम्पन्नकर बाह्य-आस्थान भूमि में आकर चमकते हुए रत्ननिर्मित सिंहासन पर पाकर बैठा।' राजा के बैठते ही उस महाआस्थान मंडप में विभिन्न विद्याओं में पारंगत अन्य राज्य-सभासद आकर अपने-अपने स्थान पर बैठ गये (१६.१७-१८)। ऐसी कोई कला, कौतुक एवं विज्ञान नहीं था, जिसके विद्वान् उस आस्थानिका के मध्य में न हो (१६.२७) । इस प्रकार की वासव-सभा एकत्र होते ही राजा ने रानी के स्वप्नदर्शन के सम्बन्ध में विचार किया। तथा विविध कला, शास्त्र, विज्ञान, विद्या, कथा आदि द्वारा अपना मनोरंजन करता हुआ राजा कुछ समय वहीं ठहरा एवं बाद में उठकर उसने अन्य दैनिक कार्य किये (१७.६)।।
उज्जयिनी के राजा अवन्तिवर्द्धन के आस्थान-मण्डप में सभी महाराजा अपने-अपने स्थान पर बैठते थे -(५०.३१) । भूल से मानभट के स्थान पर कोई पुलिन्दराजपुत्र बैठ गया तो मानमट ने इसे अपना अपमान समझ कर उसक' हत्या कर दी और शीघ्र ही आस्थान-मण्डप से बाहर निकल गया।'
कुवलयचन्द्र का युवराज-राज्याभिषेक बाह्य-आस्थानमण्डप में होता है । मांगलिक कार्य सम्पन्न करते हुए कुमार प्रास्थानमंडप में प्रविष्ट हुआ एवं अनेक मणियों की प्रभा से युक्त स्वर्णनिर्मित महामृगेन्द्र आसन पर बैठा (२००.८) । तदनन्तर अभिषेक कार्य सम्पन्न हुआ।
राजा दढ़वर्मन् ने सम्यक् धर्म में दीक्षा लेने के पूर्व सभी धार्मिक आचार्यों को अपने दरबार में बुलाया। उनके आते ही वह बाह्य-आस्थान-मण्डप में आया एवं सबके यथेष्ट आशीष आदि प्राप्त किये । तदनन्तर आसन पर बैठकर प्रत्येक धार्मिक के विचार सुने।' ऋषभपुर के राजा चन्द्रगुप्त के आस्थान-मण्डप में नगर के प्रमुख नागरिक अपनी शिकायत लेकर आते हैं। राजा तुरन्त दण्डवासिक को बुलाकर इसकी जानकारी प्राप्त करता है तथा समस्या गंभीर होने पर सकल आस्थान-मंडल की ओर देखता है -(२४७-१४)। उसका पुत्र वैरीगुप्त इस काम को पूरा करने का वायदा करता है।
बाह्य-आस्थान मण्डप के उपर्युक्त विवरण से उसके स्थापत्य एवं महत्त्व से सम्बन्धित निम्नलिखित जानकारी प्राप्त होती हैं :१. बाह्य-प्रास्थानमण्डप राजाप्रसाद को दूसरी कक्षा में प्रमुख द्वार के
बाद में स्थित होता था। २. इसे वाह्य-आस्थानमण्डप, बाह्य-आस्थान-भूमि, महा आस्थान-मंडल,
आस्थानिका, अस्थानी-मण्डप, भी कहा जाता था। १. तओ राया कयावस्सय-करणीओ....."णिक्कतो बाहिरोवत्थाण-भूमि, णिसण्णो
तविय-तवणिज्ज-रयण-विणिम्मविए महरिहे सीहासणे । -कुव०, १६.१८. २. णिक्खंतो लहुं चेव अत्याणि-मंडवाओ-वही, ५१.९. ३. धम्मिय-पुरिसा, सम्पत्ता रायमंदिरं । राया वि णिक्खंतो बाहिरोवत्थाण-मंडवं
दिठ्ठो सव्वेहिं जहाभिरूव-दंसणीयासीसा-पणामसंभासणेहिं ।-२०३.१९.