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कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन
इस संसार रूपी कीचड़ में जीव इतना रम जाता है कि उसे इसके परिणाम का भय ही नहीं होता, ठीक वैसे ही जैसे भेरीकुल के घरों के परावत प्रतिदिन भेरी का शब्द सुनते-सुनते उससे भयभीत नहीं होते।' इससे ज्ञात होता है कि भेरी बजाने वालों की अलग कोई जाति होती थी ।
भेरी अत्यन्त प्राचीन वाद्य । जनसाधारण में इसका अधिक प्रचलन था । भेरी मृदंग जाति का वाद्य था, जिसके दोनों मुख चमड़े से मढ़े होते थे । संगीतरत्नाकर के अनुसार इसके दाहिने मुख को लकड़ी तथा बायें मुख को हाथ से बजाया जाता था । किन्तु भेरी के स्वरूप में क्रमशः परिवर्तन होता रहा है । वर्तमान में विवाहोत्सव के समय जो तुरही जैसा वाद्य फूँक कर बजाया जाता है, उसे भेरी कहते हैं । सम्भवतः प्राचीन समय से भेरी के अवनद्ध एवं सुषिर दोनों रूप प्रचलित रहे होंगे ।
झल्लरी - कुवलयमाला में झल्लिरी का अन्य वाद्यों के हाथ तीन बार उल्लेख हुआ है (९६.२३, १३२.२३, १७१.७) । ऋषभदेव की पूजा में झल्लरी पर ताड़न किया गया - ताडियाम्रो झल्लरीश्रो ( १३२.२३) । इससे ज्ञात होता है कि झल्लरी अवनद्ध वाद्य था । संगीतरत्नाकर में भी इसे अवनद्ध वाद्य कहा गया है । यह एक ओर चमड़े से मढ़ा वाद्य था जिसे बाँयें हाथ से पकड़ कर दायें हाथ से बजाया जाता था । यह आजकल की चंग या खंजरी के अनुरूप था ।
किन्तु भरत मुनि ने झल्लरी को प्रत्यंग वाद्यों में सम्मिलित किया है, जिसमें स्वर नहीं मिलाया जाता । आहोवाल के अनुसार झल्लरो मंजीरा के सदृश होती थी । " तथा श्री चुन्नीलाल शेष ने झालर और झल्लरी को एक माना है। इससे ज्ञात होता है कि सम्भवतः झल्लरी अवनद्ध तथा घन-वाद्य के रूप में प्रचलित रही होगी ।
डमरुक - उद्योतन ने नगरी के उल्लेख किया है । " कापालिकों का के वाद्य डमरुक का कापालिक गृहों में शिवमंदिरों में डमरु बजाये जाते हैं ।
कापालिक गृहों में डमरुक के बजने का सम्बन्ध शैव सम्प्रदाय से था अतः शिव वजना स्वाभाविक है । वर्तमान में भी दक्षिण भारत में डमरुक के बड़े आकार
१. अणुदियहम्मि सुर्णेता अवरे गेव्हंति णो भयं धिट्ठा । भेरी-कुलीय परावय व्व भेरीए सद्देणं ।। ३८.२९.
२. सं० २०, ६.११४८, ५७.
३. मि० भा० वा० वि०, पृ० २५२ ( थीसिस ) ।
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सं० २०, ६.११३७.
मि० भा० वा० वि०, पृ० १९९.
ब्रजमाधुरी - वर्ष १३, अंक ४, पृ० ४७.
घंटा - डमरुय - सद्दई कावालिय- घरेसु – ८२.३२.
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