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कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन तथा मउंद (२६.१८) शब्दों का प्रयोग किया है। इनमें मुरव, मुरय तथा मुइंग मृदंग के पर्यायवाची है तथा मउंद सम्भवतः मृदंग से कुछ भिन्न वाद्य-विशेष रहा होगा। रामायण, महाभारत, भरतशास्त्र तया कालिदास के ग्रन्थों में मृदंग एवं मुरज का एक साथ उल्लेख मिलता है। शारंगदेव एवं अभिनवगुप्त ने मुरज को मृदंग का पर्यायवाची माना है। भरत ने स्पष्ट किया है कि यह वाद्य मांगलिक होने से मृदंग और मुलायम मिट्टी से बने हुए होने के कारण मुरज कहा जाता है । अतः मुरज मृदंग का विशेषण स्वीकार किया जा सकता है।' किन्तु प्रतीत होता है कि आठवीं सदी तक मुरज एवं मृदंग में आकार एवं उपयोग की दृष्टि से कुछ निश्चित भेद हो गया था।
कुवलयमाला में मृदंग व मुरज का इन प्रसंगों में उल्लेख हुआ है। विनीता नगरी में निर्दय करतल द्वारा मुरज ताड़ित किया जा रहा था (७.१७) । मुरज के शब्दों से मेघों जैसी गर्जना होती थी (८.११)। अयोध्यानगरी में दो मुंह केवल मृदंग के ही थे (८.१८) । कुवलयचन्द्र की हाथ की अंगुलियाँ मरज पर अनवरत ताडन करने के कारण कठोर हो गयीं थीं। नगर की तरुणियों में से कोई मुरज पर प्रहार करती थी-देइ मुरवम्मि पहरं (२६.१८). तथा कोई मउन्द (मकुन्द) बजाती थी-प्रणा छिवइ मउंदं (२६.१८)। कामदेवगृहों में कामिनियों के गीत के साथ मुरज बजता था (८३.२) । आठ देवकन्याओं में से एक के हाथ में मृदंग था (९३.१८)। कुमार कुवलयचन्द्र के शोक में अयोध्या में मुरज शब्द बन्द हो गया था (१५६.९) तथा प्रयाण के समय अन्य वाद्यों के साथ मृदंग भी वजाया जाता था (१८१.३१)।
कुवलयमाला के इन सन्दर्भो से ज्ञात होता है कि मृदंग दो मुख वाले मिट्टी के खोल से बनता था, जिन पर चमड़ा मढ़ा होता था। इसे बजाने के लिए जोर से ताड़न करना पड़ता था। स्त्री-पुरुष दोनों ही विभिन्न अवसरों पर मृदंग वजाते थे। बंगाल में अभी जिसे खोल कहा जाता है, उसी से मृदंग की पहचान की जा सकती है।
पटु-पटह-कुवलयमाला कहा में इन प्रसंगों में पडु-पडह का उल्लेख हुआ है । प्रातः काल पटुपटह की आवाज से भवनों के हंस जाग उठे (१६.१०, १७३.१८, १९८.६, २६९.९) । डोंव के लड़के को पटह के शब्द से कोई भय नहीं होता। देवलोक में अन्य वाद्यों के साथ पटह भी बज रहा था (९६.२३)। ऋषभदेव के अभिषेक के समय पटह बजाया गया (१३२.२३)। गोपुरद्वार पर
१. मि०-भा० वा० वि० २. तुलना कीजिए : मेघदूत १.५९ ३. अणवरय-मुरय-ताडण-तरलियाओ दीह-कढिणाओ पुलएइ अंगुलीओ, २२.२२ ४. किं कोइ डोंब-डिभो पडहय-सदस्स उत्तसइ--३८.२८