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________________ वादित्र २८७ प्रारम्भ हुआ, जिसे उस समय देशी संगीत कहा गया। गुप्तयुग में नारद द्वारा प्रवर्तित मार्गी संगीत को प्रतिष्ठित माना जाता रहा ।' नारद संगीत की इसी प्रतिष्ठा के कारण महाकवि बाण ने कादम्बरी में गन्धर्व लोक में नारद-संगीत प्रचलित होने का उल्लेख किया है-कलगिरा गायन्ता नारद-दुहित्रा-(कादम्बरी, अनु० २०५) । उद्योतनसूरि ने भो देवलोक में नारद और तुम्बुरू का उल्लेख किया है। इससे ज्ञात होता है कि उस समय लोक में नारद-तुम्बरू का संगीत प्रचलित नहीं था तथापि उसे प्रतिष्ठा अवश्य प्राप्त थी । उद्द्योतन ने नारद-तुम्बुरू का उल्लेख अनेक वाद्यों के साथ किया है। अतः सम्भव है, उनके समय तक नारद और तुम्बरू आचार्यों के नाम पर कोई वाद्य-विशेष प्रचलित हो गये हों। .. तन्त्री-उद्द्योतन ने तन्त्री का इन प्रसंगों में उल्लेख किया है। देवलोक में जीव गन्धर्व, ताल, तन्त्री के मिले-जुले मधुर शब्द को सुनता है ।२ देवलोक में में कोई मधुर गीत गा रहा था, कोई तन्त्री-वाद्य वजा रहा था। चोर के भवन के समीप तन्त्री का शब्द एवं युवतियों के गीत सुनायी पड़ रहे थे। इससे ज्ञात होता है कि तन्त्री वाद्य का गीत से घनिष्ट सम्बन्ध था एवं उसका रव मधुर होता था। किन्तु वास्तव में तन्त्री कोई वाद्य नहीं है । तत वाद्यों में प्रयुक्त होनेवाली सामग्री का ही एक अंश है । वैदिक काल में उपलब्ध वाद्यों में मूंज तथा दूब की तंत्रियाँ बनायी जाती थीं। तदनन्तर इसके लिए रेशम का धागा एवं जानवरों के बाल प्रयुक्त किये जाने लगे। घोड़े की पूंछ का बाल तन्त्री के लिए प्राचीन काल में अधिक उपयुक्त समझा जाता था। आगे चलकर जानवरों की खालों से तन्त्रियों का निर्माण प्रारम्भ हुआ। इन त्रितन्त्रियों को ताँत कहा जाता था। आज भी सारंगी, सारिंदा आदि में ताँत का प्रयोग देखा जा सकता है।" अवनद्ध वाद्य जो वाद्य चमड़े से मढ़े होते हैं, वे अवनद्ध कहलाते हैं। उद्योतनसूरि ने अवनद्ध वाद्यों के अन्तर्गत मृदंग, पटह, काहल, भेरी एवं ढक्का का उल्लेख किया है। मुंइग, मुरय-उद्योतन ने मृदंग के लिए मुरव(७.१७, ८.११, २६.१८), मुरय (२२.२२,८३.२, ९३.२५, १५६.९), मुइग (९३.१८, ८.१८, १८१.३१) १. अ०-का० सां० अ०, पृ० २०७ २. गंधव्व-ताल-तंती-संवलिय-मिलंत-महुर-सद्देणं-..४३६ गायंति के वि महुरं अण्णे वाएंति तंति-वज्जाइं-९३.१४. ४. उच्छलइ तंति-सद्दो वर कामिणी-गीय-संवलिओ।-२४९.१३. ५. मि०-भा० वा० वि०, पृ० १८४. । ३.
SR No.032282
Book TitleKuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherPrakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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