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________________ परिच्छेद दो वादित्र संगीत के प्राचीन आचार्यों ने वाद्यों की उपयोगिता पर विशद प्रकाश डाला है। उनके अनुसार संगीत के लिए वाद्यों का होना तो आवश्यक है ही, वाद्यों की सामाजिक और धार्मिक उपयोगिता भी है। वाद्य मानव की अन्त र्भावनाओं की अभिव्यक्ति के द्वार हैं । सांस्कृतिक कार्यों के परिचायक किसी वाद्यविशेष के बजते ही ज्ञात हो जाता है कि भगवान की पूजा हो रही है, विवाह हो रहा है, पुत्रजन्म मनाया जा रहा है अथवा सेना का प्रयाण हो रहा है। इसके अतिरिक्त शास्त्रीय संगीत की विभिन्न परम्पराओं को जीवित रखने में भी वाद्यों का योगदान रहा है। अतः प्रत्येक युग में प्रयुक्त वाद्य-यन्त्र अपने समय का प्रतिनिधित्व करते हैं । उनके सांस्कृतिक अध्ययन से कई तथ्य प्राप्त हो सकते हैं। कुवलयमालाकहा में उल्लिखित वादित्र उद्द्योतनसूरि ने कुवलयमाला में विभिन्न प्रसंगों में चौबीस प्रकार के वादित्रों का उल्लेख किया है। अकारादि क्रम से उन्हें इस प्रकार रखा जा सकता है: १. आतोद्य २. काहल ३. घंटा ४. झल्लिरी ५. डमरुक ६. ढक्का ७. तन्त्रि ताल ९. त्रिस्वर १०. तूर ११. तोडहिया १२. नाद १३. नारद १४. तुम्बरू १५. पडुपटह १६. भेरी १७. मंगल १८. मृदंग १९. वंस २०. वज्जिर २१. वव्वीसक २२. वीणा २३. वेणु २४. शंख १. भरतनाट्य, अध्याय ३४, श्लोक, १८.२१ ।। २. डा० लालमणि मिश्र, 'भारतीय संगीतवाद्यों का स्वरूपात्मक एवं प्रयोगात्मक विवेचन' (थीसिस) प्रथम खण्ड, पृ० ३६.
SR No.032282
Book TitleKuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherPrakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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