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भाषाएँ तथा बोलियाँ
मट्ठ यजुस्वामि, विदग्ध-पंडित विद्यावंतो ग्वाथी पढति, एतेन सा परिणतव्या( १५२.१४) । तब दूसरे ने कहा- अरे, वह पाद कैसा है, जो कुवलयमाला ने लटका रहा है- अरे केरिसो सो पायओ जो तीए लंबिश्रो (१५२.१५) । तब दूसरे ने कहा- राजांगण में मैंने पढ़ा था, किन्तु मूल गया हूँ। वैसे सभी उसे पढ़ते हैं - राजांगणे मइ पढिउ प्रासि, सो से विस्मृतु सव्वलोकु पढति-ति(१५२.१५) ।'
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छात्रों की इस बातचीत को सुनकर की असम्बद्ध बातचीत मात्र प्रलाप है । कुवलयमाला ने राजांगण में अपूर्ण श्लोक चलना चाहिए (१५२.१८) ।
कुमार ने केवल
सोचा - इन अनाथ छात्रों इतना ज्ञात होता है कि (पाद) लटका रहा है । अतः वहीं
१. छात्रों की बातचीत का हिन्दी भावानुवाद, डा० जगदीशचन्द्र जैन ने अपने ग्रन्थ 'प्राकृत साहित्य का इतिहास में भी किया है ।
२. अहो, अगाह - वट्टियाणं असंबद्ध - पलावत्तणं चट्टानं ति-१५२.१७.