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कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन अंश उद्धरण के रूप में प्रस्तुत भी किये हैं। अतः कुवलयमालाकहा में उल्लिखित शिक्षा एवं साहित्य विषयक सामग्री परम्परागत ही नहीं, नवीन और व्यावहारिक भी है।
शिक्षा का प्रारम्भ-कुवलयचन्द्र जव पाठ कलाओं से युक्त चन्द्रमा की भाँति आठ वर्ष का हो गया तब तिथि सुधवाकर शुभ नक्षत्र एवं सुन्दर लग्न में उसे लेखाचार्य के पास ले जाया गया।'
प्राचीन भारतीय ग्रन्थों में शिक्षा का प्रारम्भ प्रायः आठ वर्ष की अवस्था से माना जाता है। आठ वर्ष की अवस्था में उपनयन संस्कार होता था। तदन्तर शिक्षा प्रारम्भ होती थी। क्योंकि तब तक वालक का मस्तिष्क शिक्षा ग्रहण करने योग्य हो जाता था। जैन ग्रन्थों में उल्लिखित शिक्षा-पद्धति में भी आठ वर्ष की आयु में शिक्षा का प्रारम्भ माना गया है। किन्तु कुछ इसके अपवाद भी हैं। स्मतियों में पाँच वर्ष के बालक की शिक्षा प्रारम्भ करने का विधान भी है। आदिपुराण में पाँच वर्ष की आयु में लिपिसंस्कार करने का उल्लेख है, जिसमें सुवर्णपट्ट पर अक्षरज्ञान प्रारम्भ कर दिया जाता था (३८.१०२,१०६)। किन्तु शास्त्रों के अध्ययन का प्रारम्भ यहाँ भी उपनीतिक्रिया के वाद माना गया है। अतः यह स्वीकार किया जा सकता है कि सामान्यतः आठ वर्ष की प्रायु में विद्या अध्ययन प्रारम्भ कर दिया जाता था। इस कारण उपनयन संस्कार को कलाग्रहण' उत्सव भी कहा जाने लगा था।
गुरुकूल एवं विद्यागृह-वाराणसी उत्तर भारत में एवं विजयपूरी दक्षिण भारत में प्रसिद्ध शिक्षा केन्द्र थे। लेखक ने तक्षशिला के वर्णन में उसको व्यापरिक स्थिति का तो उल्लेख किया है किन्तु उसके विद्यास्थान होने का वर्णन नहीं किया है। ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन भारत के प्रसिद्ध विद्या. केन्द्रों में जाकर अध्ययन करना इस समय कम हो गया था क्योंकि इस समय निकटवर्ती निजी विद्यागृहों में अथवा एक गुरु से, अध्ययन करने की परंपरा
अट्ठ-कलो व्व मियंको अह जाओ अट्टवरिसो सो--लेहायरियस्स उवणीओ
कुव० २१.१२-१३. २. एव० आर० कापड़िया-'द जैन सिस्टम आफ एजुकेशन' जर्नल आफ द युनि०
आफ वाम्बे जनवरी १९४०, पृ० २०६ आदि ।
-ज० जै० के० पृ० १६९ पर उद्धृत. डी० सी दासगुप्त-- 'जैन सिस्टम आफ एजुकेशन' पृ० ७४
-भगवती (अभयदेव वृत्ति) ११.११, ४२९ पृ० ९९९ । --नायाघम्मकहाओ, १.२० पृ० ३१, कथाकोषप्रकरण, पृ० ८,
ज्ञानपंचमीकहा, ६.९२ आदि । ३. आदिपुराण में प्रतिपादित भारत, पृ० २६१ ६४. ४ 'प्राचीन भारत में जैन शिक्षणपद्धति'-डा० हरीन्द्रभूषण, संसद्-पत्रिका, १९६५.