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शिक्षा एवं साहित्य
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बढ़ गयी थी । कुल मिलाकर ग्रन्थकार ने बड़े विद्या केन्द्रों के रूप में वाराणसी और विजयपुरी का ही उल्लेख किया है ।
कुवलयमालाकहा में अध्ययन करने के केन्द्र के रूप में चार प्रकार के सन्दर्भ प्राप्त होते हैं । कुवलयचन्द्र को लेखाचार्य के साथ एक ऐसे निजी विद्यागृह में रखा गया था, जहाँ सकल परिजनों के दर्शन तो दूर सूर्य और चन्द्रमा भी दिखायी नहीं पड़ते थे । बारह वर्ष तक कुमार माता-पिता के दर्शन किये विना उस विद्यागृह में (२१, १४-१५) । इस प्रकार के निजी विद्यागृहों का उस समय बाहुल्य था । राजकुमार एवं श्रेष्ठिपुत्रों के लिए इन विद्यागहों का निर्माण किया जाता था । उस समय अपने घर पर स्वतन्त्र रीति से अध्ययन कराने वाले आचार्य शिक्षण के मेरुदण्ड थे । धनपाल तिलक मंजरी में एक ऐसे ही निजी विद्यागृह का उल्लेख किया है ।
रहा
दूसरे प्रसंग में विद्यागृह का कार्य एक व्यक्ति ही सम्पन्न करता है । मरुकच्छ के राजा भृगु की पुत्री केवल विदुषी ही नहीं, अपितु अध्यापन-कार्य में भी निपुण थी । उसने थोड़े ही समय में राजकीर को अक्षरज्ञान, नृत्य, व्याकरण, समुद्रशास्त्र, आदि सभी विद्याओं का अध्ययन करवाकर पंडित बना दिया था । ( तीए पसाएण ग्रहं अह जाम्रो पंडिम्रो सहसा ( १२३.२४) । राजकीर ने सभी शास्त्रों का अध्ययन करके अध्यापन कार्य करने की कुशलता भी प्राप्त थी । अवसर पड़ने पर उसने भी संन्यासिनी ऐणिका को ग्रक्षरज्ञान से लेकर धर्म-अर्थ एवं काम विद्याओं के सभी शस्त्रों का अध्ययन कराया थासव्व सण्णाश्रो गाहिया तो धम्मत्थ- काम - सत्थाई प्रहीयाई - ( १२७.१७) ।
तीसरे प्रकार के विद्यागृह साधु और साध्वियों के उपाश्रय और वसतिस्थान थे । वहाँ उपाध्यायों के द्वारा परम्परागत शास्त्रों की शिक्षा देने के साथसाथ, शब्द, हेतुशास्त्र, छेदसूत्र, ( प्रायश्चित विधायक - शास्त्र), दर्शन, काव्य एव निमित्त-विद्या आदि सिखाये जाते थे । श्रमणसंधों की ये चलती-फिरती पाठशालाएं थी । कुवलयमाला में आचार्य धर्मनन्दन के शिष्य ग्यारह आगमों ( ३४.११) के अध्ययन एवं वाचन के साथ ही तन्त्र, मन्त्र, काव्य, ज्योतिष आदि शास्त्रों का भी पारायण करते थे । 3
कुवलयमाला कहा में चौथे प्रकार के शिक्षाकेन्द्र के रूप में मठ का उल्लेख हुआ है । कुवलयचन्द्र ने विजयपुरी में प्रविष्ट होने के पूर्व एक मंदिर सदृश मठ को देखा, जो सार्वजनिक छात्रों का मठ था-ण होई इमं मंदिरं किंतु सव्वचट्टणं-मढं (१५०.१८) | दक्षिभारत में स्थित यह मठ देश के विभिन्न प्रान्तों
१. अ० - का० सा० अ०, पृ० १५.
२.
ज० - जै० आ० स०, पृ० २९९.
३. बहु-तंत-त-विज्जावियाणया सिद्ध-जोय - जोइसिया ।
अच्छंति अणुगुता अवरे सिद्धत - साराई ||
— कुव० ३४.२७.