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कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन
पूजा करने के लिए आने को कहती है, जिससे वह अपने प्रेमी से भी मिल सके ( ७७.२८ ) । भवभूति के मालतीमाधव और सम्राट हर्षदेव की रत्नावली में मदनोत्सव और मदनोद्यान - उत्सव का सूक्ष्म और विस्तृत वर्णन है ।
_इस प्रकार कुवलयमालाकहा में वर्णित उपर्युक्त सामाजिक आयोजन व उत्सव केवल थकान को मिटाने के साधन नहीं थे, अपितु उनके पीछे सांस्कृतिक धरोहर की मांगलिक रूप में रक्षा करने का भी उद्देश्य था । उनसे केवल मनोरंजन
नहीं, अपितु काम जैसी प्रमुख वृत्तियों का कल्याणकारी शमन भी होता था, जो स्वस्थ्य र आदर्श समाज के लिए अनिवार्य है । इन सामाजिक प्रयोजनों में सभी वर्णों और जातियों को सम्मिलित होने का अवसर था । इस प्रकार आर्य-संस्कृति के वे प्रमुख सामाजिक उपादान थे ।
रीति-रिवाज
कुवलयमाला में सामाजिक आयोजनों अवसरों पर अनेक प्रकार रीति-रिवाजों का भी उल्लेख किया गया है । इनमें से कुछ रीति-रिवाज ऐसे हैं जिनका जैनपरम्परा के अनुसार लेखक ने खंडन करने का प्रयत्न किया है, किन्तु कुछ रीति-रिवाजों को कथानक के अनुसार स्वीकृति भी दी है । इनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है।
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अग्निसंस्कार एवं ब्राह्मणभोज - मानभट अपने माता-पिता एवं पत्नी के शवों को कुएँ से निकालकर उनका उचित संस्कार करता है ।" सुन्दरी के पति प्रियंकर की मृत्यु हो जाने पर अर्थी बनायो गयी तथा उस पर शव को रखा गया । उसे ले जाने के लिए सुन्दरी से कहा गया कि पुत्री, तुम्हारा पति मर गया है, उसे श्मसान ले जाकर अग्नि संस्कार करने दो । किन्तु सुन्दरी प्रेमान्ध होने के कारण इसके लिये तैयार नहीं हुई तथा स्वयं उसे कन्धे पर लाद कर निर्जन स्थान पर ले गयी । क्योंकि वह अपने पति से बिछुड़ना नहीं चाहती थी । लेकिन अन्त में राजकुमार की चतुराई द्वारा उसे यथार्थ से अवगत कराया गया ।
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अग्नि-संस्कार के बाद मृतक को पानी देने की भी प्रथा थी, जो पुत्र के द्वारा सम्पन्न होती थी ( १३.२२ ) । मृतक की अस्थियों को गंगा में सिराने से धर्म होता है, ऐसी भी मान्यता थी । किन्तु ये सब अल्पज्ञानियों के द्वारा किये जाने वाले कार्य थे । लेखक के अनुसार इन कार्यों से मृतक की आत्मा की पवित्रता नहीं बढ़ती । यद्यपि फूल सिराने की प्रथा आज भी विद्यमान है ।
१. एएमएल्लए कूवाओ कड्ढिऊण सक्कारिकणं मय - करणिज्जं च काऊणं - ५५.७. २. विणिम्मिवियं मय- जाणवत्तरं । तओ तत्थ वोढुमाढत्ता - वच्छे एस सो तुह पई
विवण्णो, मसाणं ऊण अग्नि-सक्कारो कीरइ - २२४.२९ एवं द्रष्टव्य ४८.१०.
३. एयं ते भणमाणा तलए गंतूण देंति से वारि, १८७.४ तथा २४०.१६. पुण भयस्स अंगट्टियाइँ छन्भंति जण्हवी-सलिले ।
४.
जं
तं तस होई धम्मं एत्थ तुमं केण वेलविओ ॥४९.५.