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सामाजिक आयोजन
१३३ कौमुदीमहोत्सव कहा है, जिसमें बलि और विष्णु के कथानक को सम्मान दिया जाता था। किन्तु प्राचीन साहित्य में कौमुदी-महोत्सव दीपावली से भिन्न बतलाया गया है।'
कुव० के अनुसार इस महोत्सव में नगर के चौराहों पर नटों के नत्य होते थे।२ नटमंडली के कुछ चारण आदि व्यक्ति महोत्सव में सम्मिलित श्रेष्ठजनों की स्तुति करते थे तथा रसिक श्रेष्ठिपुत्र एक लाख तक का पुरस्कार इन भरतपुत्रों को देने की घोषणा करते थे। किन्तु अपनी बाहुओं द्वारा कमाये हुए धन को दान में देना ही श्रेष्ठ समझा जाता था। उद्योतनसूरि ने इस महोत्सव में महिलाओं के सम्मिलित होने का उल्लेख नहीं किया है, जबकि आगे चलकर रानियाँ भी अन्य प्रतिष्ठित महिलाओं के साथ इस महोत्सव में सम्मिलित होने लगी थीं। शरदपूर्णिमा के अतिरिक्त कौमुदीमहोत्सव कार्तिकपूर्णिमा को भी मनाये जाने के उल्लेख मिलते हैं।"
____ वसन्तोत्सव–वसन्तऋतु में कई उत्सव मनाये जाते थे। उनमें से वसन्तोत्सव और मदनोत्सव प्रसिद्ध हैं। जिस दिन वसन्त वर्ष में प्रथम बार पृथ्वी पर उतरता है, उस दिन जो उत्सव मनाया जाता था उसे वसन्तोत्सव अथवा सवसन्तक कहा गया है। उद्योतन ने इसका नववसन्त उत्सव के रूप में उल्लेख किया है (७७.१५) ।
मदनोत्सव-कुव० में इसका विस्तृत वर्णन है । नर, किन्नर, एवं रमणियों से व्याप्त वसन्त ऋतु में मदन योदशी (चैत्र शुक्ल द्वादशी से पूर्णिमा तक) के
आने पर पूजनीय, संकल्प-पूर्णकर्ता कामदेव के बाह्य उद्यान में स्थित मंदिर की यात्रा करने के लिए अपनी धाय एवं सखियों सहित जाती हुई वनदत्ता को मदनमहोत्सव में आये हुए मोहदत्त ने देखा। दोनों में अनुराग हो गया (७७. १६, १८)।
इससे ज्ञात होता है कि मदनोत्सव में कामदेव की पूजा का कार्य प्रधान था। स्त्री-पुरुष दोनों ही इस उत्सव में सम्मिलित होते थे। मदन-त्रयोदशी के दिन अधिक भीड़ रहती थी, किन्तु कामदेव की पूजा वाद में भी चलती रहती थी । वनदत्ता की धाय उसे मदनोत्सव समाप्त होने पर निर्जन में कामदेव की १. जातकमाला (१३वीं उनमारयंती की कथा)-आर्यसूर्य, मुद्राराक्षस अंक ३
मालतीमाधव अंक ७ एवं कामसूत्र ५-५, ११. २. एक्कम्मि य णयरि-चच्चरे णडेण णच्चिउं पयत्तं-१०३ १५. ३. भो भो-भरहपुत्ता लिहइ सायरदत्तं इमिणा सुहासिएण लक्खं दायव्वं, १०३.१९. ४. नगरांगनाजनस्य'"कौमदीमहोत्सवसमयमालोकमानया-यशस्तिलकचप्प,
उ० ७, पृ० २. ५. मुद्राराक्षस ३.१० के टीकाकार धुंधिराज के अनुसार । ६. प्राचीनभारत के कलात्मक विनोद, पृ० १३८.