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सामाजिक संस्थाएँ
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की मर्यादा भंग होती थी जो उचित नही थी - भिंदसि कुल मज्जायं संपइ तुह हो ण जुत्तमिणं (२६६.२८ ) । सास-ससुर को भी माता-पिता के समान आदर दिया जाता था ।
विवाह संस्था - विवाह समाज की महत्त्वपूर्ण संस्था है । परिवार का संचालन विवाह संस्था द्वारा ही सम्भव है । चार पुरुषार्थों का पालन विवाहसंस्था के माध्यम से सम्पन्न होता है । कुव० के सन्दर्भों से ज्ञात होता है कि वरकन्या के समान वय, वैभव, शील, धर्म एवं कुल के होने पर ही उनका विवाह सम्पन्न होता था । विवाह के बाद माता-पिता पुत्र को परिवार का भार सौंप देते थे (४५.२५) । अतः गृहस्थजीवन का प्रवेश द्वार था - विधिवत् विवाह | विवाहोत्सव का वर्णन आगे किया गया है ।
धार्मिक संस्थाएँ
कुछ संस्थाएँ धार्मिक होते हुए भी समाज के उत्थान के लिए महत्त्वपूर्ण होती हैं । अतः ऐसी संस्थानों का निर्माण समाज के व्यक्ति समय-समय पर कराते रहते | उद्योतनसूरि ने ऐसी निम्न संस्थाओं का उल्लेख किया है :देवकुल (६५. ८), मठ (८२.३२), पाठशाला ( ८२.३३), समवसरण (९६.२८), अग्निहोत्रशाला (१७१.३) एवं ब्राह्मणशाला ( ८२.३२) ।
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देवकुल तत्कालीन स्थापत्य का प्रचलित शब्द है । नगर के विभिन्न स्थानों पर सामूहिक देवकुलों का निर्माण होता था । इनके निर्माण के लिये नगर के श्रेष्ठी दान करते थे— करावेसु देवउले (६५.८ ) । इनमें केवल देव - अर्चना ही नहीं होती थी, अपितु भूले-भटके पथिक भी इनमें ठहर सकते थे । मठ का उल्लेख उद्योतनसूरि ने दो प्रसंगों में किया है । कौसाम्बी नगरी में शाम होते ही धार्मिक मठों में गलाफोड़ आवाज होने लगती थी ( ८२.३२ ) । विजयपुरी के मठ में अनेक देशों के छात्र रहकर अध्ययन करते थे । ये मठ शिक्षा के बड़े केन्द्र होते थे (१५०-५१ ) । दक्षिण भारत में मठों की स्थापना के ऐतिहासिक साक्ष्य भी प्राप्त होते हैं ।
कुव० में पाठशाला के लिए आवसथ शब्द का प्रयोग हुआ है । उसमें भगवद्गीता का पाठ हो रहा था ( ८२.३३ ) । सम्भवतः पाठशालाएँ प्रारम्भिक अध्ययन का केन्द्र थीं । ब्राह्मणशाला में गंभीर वेदपाठ का शब्द होता रहता था ( ८२.३२ ) । ये ब्राह्मणशालाएं केवल ब्राह्मण छात्रों के अध्ययन का केन्द्र रहीं होंगी । कुव० में समवसरण का परम्परागत वर्णन है । डा० नेमिचन्द्र
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सरिस - गुण-कुल- सील - माण-विहव- विष्णाण-विज्जाणं बंभण-कुलाणं बालिया बंभणकण्णया पाणि गाहिया - कुव० ४५.२४.