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कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन
शास्त्री ने समवसरण को भी एक सामाजिक संस्था माना है। क्योंकि इसके आयोजन द्वारा मानवमात्र को धर्म साधन का समान अधिकार प्रदान किया जाता है । सद्गुणों के विकास के लिए कर्तव्य एवं अधिकारों का ज्ञान कराया जाता है ।' जैन तीर्थंकर की दिव्यध्वनि के समय संसार के प्राणी एक स्थान पर एकत्र होकर अपनी-अपनी भाषा में उसे हृदयंगम करते हैं, तदनुरूप अपने व्यक्तित्व का विकास करते हैं। उद्योतनसूरि के समय समवसरण का सामाजिक स्वरूप क्या था, ज्ञात नहीं होता, किन्तु उसकी रचना का स्थापत्य महत्त्व अवश्य रहा है।
परोपकारी संस्थाएँ
उद्द्योतनसूरि का युग समृद्ध समाज का युग था। व्यापार के विभिन्न स्रोतों से जितना अधिक धन अजित किया जाता था, उतनी मात्रा में ही समाजकल्याण की संस्थाएं संचालित की जाती थीं। कुव० में विभिन्न प्रसंगों में इन परोपकारी सामाजिक संस्थाओं का उल्लेख हुआ है :
पवा-वत्स जनपद में पवा, मंडप, सत्रागार आदि संस्थाएं वहां की दानशीलता की सूचक थीं।२ पवा एक प्रकार की प्याऊ थी जिसे प्रपा कहा जाता था। किन्तु स्थलमार्ग की कठिनाइयों के कारण प्रपा में पानी की व्यवस्था के साथ पथिकों के ठहरने की व्यवस्था भी रहती थी। ग्रीष्म ऋतु में पवा, मंडप पथिकों के समूह से भरे रहते थे (११३.८)। प्रथमवृष्टि के होते ही पवा-मंडप सजा दिये जाते थे (१४७.२५) । सम्भवतः इस समय गर्मी और पथिकों का आवागमन बढ जाता रहा होगा। पवा में लोगों की भीड बनी रहने के कारण वहाँ भी राजाज्ञा की घोषणा की जाती थी (२०३.१०)। उस समय कुछ ऐसे भी धार्मिक थे जो कूप, तालाब, वापी को बंधाना तथा प्रपा को दान देना ही परम धर्म समझते थे। (२०५.३) ।
मंडप-मंडप सामान्यतया पथिकों के निवास स्थान के लिए प्रयुक्त शब्द था। सम्भवतः प्रपा के साथ मंडप भी बनाया जाता था। उद्योतनसूरि ने सामान्य मंडप के अतिरिक्त अनाथमंडप और शिवमंडप का भी उल्लेख किया है। अनाथमंडप मथुरा में स्थित था। उसमें श्वेतकुष्टी, क्षयरोगी, दीन, दुर्गत, अंधे, लंगड़े, मंदगतिवाले, वृद्ध, वामन, नकटे, बूचे, होंठकटे, मोटे होंठवाले आदि
१. शास्त्री-आ० भा०, पृ० १४०.४२. २. सूइज्जति जत्थ पडिप्पवा-मंडवासत्तायारेहिं दाणवइत्तणाई, ३१.१४. ३. संपत्तो महुराउरीए । एत्थ एक्कम्मि अणाह-मंडवे पविट्ठो, ५५-१०. ४. एक्कम्मि णयरच्चचर सिव-मंडवे पाविसि पयत्ता, ९९.२२.