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________________ १२२ कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन (२३३.२); किन्तु पति के मन पर अपना ही अधिकार रखती थी।' परिहास में भी अपने पति द्वारा किसी अन्य युवती की प्रशंसा सुनकर रूठ जाती थीं। किन्तु विपत्ति में पति का अनुगमन करने के लिए हमेशा तैयार रहती थीं। क्योंकि उनका इस मान्यता पर विश्वास बना हुआ था कि संसार में स्त्रियों का पति देवता होता है। अपने इस विश्वास के कारण कई बार पत्नियाँ पति के झूठे लांछन को सहना अपना कर्तव्य मानती थीं (४६.२०) । सुन्दरी के कथानक से पतिप्रेम की पराकाष्ठा ज्ञात होती है, जिसमें पति की अल्पायु में मृत्यु हो जाने के कारण वह उसकी लाश की महीनों तक सेवा करती रहती है (२२५.२१, ३०)। पत्नी जितना पति को चाहती थी, आदर देती थी उतना ही पति उसका ख्याल रखता था। पत्नी के कुपित होने की सूचना मिलते ही वह मित्र-बन्धुओं को छोड़कर उसे मनाने चल देता था और सोचता था पत्नी किस कारण कूपित हई होगी। उद्योतनसूरि ने पत्नी के कुपित होने के पाँच प्रमुख कारण बतलाये हैं :-१. प्रणय स्खलन--पति द्वारा पत्नी के प्रणय की उपेक्षा अथवा प्रणय-सम्बन्ध से असन्तुष्टि । २. गोत्र-स्खलन-पत्नी के मायके के सम्बन्ध में कोई बुराई करना अथवा पत्नी के सामने किसी दूसरी स्त्री को प्रशंसा करना। ३. अविनीत परिजन-घर के नौकरों द्वारा पत्नी का अपमान। ४. प्रतिपक्षकलह-उपपत्नियों द्वारा प्रताड़ना आदि तथा ५. सास द्वारा ताड़ना (११.२५, २६)। इन कारणों के अतिरिक्त सन्तान न होने से पत्नियाँ अधिक कुपित होती थीं। पति पत्नी को प्रसन्न करने के लिये सन्तान प्राप्ति का हर सम्भव प्रयत्न करता था। माता पिता-संयुक्त परिवार में पति-पत्नी एवं उनकी सन्तान के साथ पति के माता पिता भी रहते थे। वे पूर्णतया अपने पुत्र के आश्रित होते थे। वृद्धावस्था में उनका पोषण करना पुत्र का परम कर्तव्य था । पुत्र द्वारा युवावस्था में गृहत्याग के कारण माता-पिता अपने आलम्बन की चिंता करते थे। मानभट के माता-पिता पुत्र को मृत जानकर अनाश्रित हो जाने के कारण स्वयं कुएं में कूद पड़ते हैं (५४.२०, २४)। माता-पिता का संतान के प्रति इतना स्नेह होने के कारण प्रत्येक कार्य के लिए उनकी आज्ञा भी ली जाती थी तथा उनकी विनय करना भी पुत्र का कर्तव्य था। यदि पुत्र इसकी अवहेलना करता था तो कुल १. जं किंचि तुमं पेच्छसि सुणेसि अणुहवसि एत्थ लोगम्मि । तं मज्झ तए सव्वं साहेयव्वं वरो एसो ॥२३३.६. २. जइ तं वच्चसि सामिय अहं पि तत्थेय णवरि वच्चामि । भत्तार-देवयाओ णारीओ होंति लोगम्मि ॥२६५.२६. ३. किर होहिसि आलंबो वुड्ढत्तणयम्मि अम्हाण-२६२.१८. ४. पुत्त इमो ते धम्मो अम्मा-तायाण कुणसि जं विणयं---२६३.२४.
SR No.032282
Book TitleKuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherPrakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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