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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-17/78 - इस भरत क्षेत्र में मगध देश में ब्राह्मण नाम का नगर है। उसमें एक शांडिल्य नाम का धनी गुणवान ब्राह्मण था। उसकी स्थंडिला नाम की रूपती, सोभाग्यशाली स्त्री थी। स्वर्ग में जो बड़ा देव (रानी का जीव) था, वह आकर गौतम नाम का पुत्र हुआ और दूसरा देव भी स्थंडिला के ही गार्ग्य नाम का पुत्र हुआ और तीसरा देव उसी ब्राह्मण की दूसरी पत्नी के उदर से भार्गव नाम का पुत्र हुआ। जैसे कुंती के पुत्र पाण्डवों के बीच परस्पर प्रेम था, इसी प्रकार इन तीनों भाईयों में अत्यन्त प्रेम था। तीनों भाइयों ने ब्राह्मणों के समस्त क्रिया-काण्ड का ज्ञान प्राप्त कर लिया था। तीनों में गौतम सबसे बड़ा था वह बौद्धमत के समस्त शास्त्रों का ज्ञाता था और ब्रह्मशाला में पाँच सौ शिष्यों का उपाध्याय था। उसी समय भगवान महावीर स्वामी को केवलज्ञान प्राप्त हुआ। देवों ने आकर समवसरण की रचना की। भगवान सिंहासन पर विराजमान हुए, परन्तु छियासठ दिन तक दिव्यध्वनि नहीं खिरी। यह देखकर सौधर्म इन्द्र ने अवधिज्ञान से देखा कि समवसरण में गणधर देव की अनुपस्थिति के कारण दिव्यध्वनि नहीं खिर रही है। और इस समय समवसरण में ऐसा कोई भी जीव मौजूद नहीं है जो भगवान की दिव्यध्वनि को झेल सके। तब सौधर्म इन्द्र ने गणधर पद के योग्य जीव की खोज के लिए अपने अवधिज्ञान का घेरा बढ़ाया और अपने अवधिज्ञान द्वारा यह जाना कि गौतम ब्राह्मण ही गणधर बनने की योग्यता रखते हैं। अत: इन्द्र ने स्वयं ही एक अतिशय वृद्ध ब्राह्मण का रूप धारण किया और लकड़ी के सहारे धीमे-धीमें चलते हुए गौतम ब्राह्मण के समीप आया और बोला – “संसार में अपना पेट भरने वाले तो बहुत हैं, परन्तु इस काव्य का अर्थ करने वाले इस पृथ्वी पर कोई विरल पुरुष होंगे? मेरे गुरु इस समय ध्यान में हैं, अतः अभी मुझे कुछ नहीं बता सकते। इसलिये मैं इस काव्य का अर्थ समझने के लिये आपके पास आया हूँ।" उसके उत्तर में गौतम ने कहा – “आप अपने काव्य का बहुत अभिमान करते हो। यदि मैं अर्थ कर दूं तो तुम मुझे क्या दोगे?" वृद्ध वेशधारी इन्द्र
SR No.032266
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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