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________________ - जैनधर्म की कहानियाँ भाग-17/77 विदेश पर्यटन के लिये निकली थीं। रास्ते में सदा आपस में लड़ती-झगड़ती अनेक नगरों में भ्रमण करती, माँगती, खाती अनुक्रम से इस नगर में आई हैं। यद्यपि इनके शरीर अत्यन्त ही मलिन हैं, तथापि इन्होंने प्रसन्नचित्त होकर मुनि के पास आकर वंदन किया है। जिस प्रकार बादलों की गर्जना सुनकर मयूर प्रसन्न होता है, उसी प्रकार मुनिराज के मुख से अपना भूतकाल सुनकर तीनों कन्या पश्चाताप पूर्वक शुभभाव सम्पन्न हुईं। तत्पश्चात संसार दुःखों से भयभीत ये तीनों कन्यायें मुनिराज को भक्ति से नमस्कार व स्तुति करके प्रार्थना करने लगीं कि हे प्रभो ! हे स्वामिन् !! इस संसाररूप अपार समुद्र में डूबे हुए समस्त प्राणियों को पार लगाने के लिये आप जहाज के समान हैं। पूर्व भव में हमने जो घोर पाप किया था, कृपा करके उसके नाश का कोई उपाय बताइए? ___ मुनिराज उन कन्याओं के शुभ वचन सुनकर तथा उन्हें निकट भव्य समझकर मीठी वाणी से कहने लगे- हे पुत्रियो ! आत्मा तो सदाकाल सुख सम्पन्न ही है; परन्तु इस जीव ने अनादि काल से पर में सुख की कल्पना कर रखी है। अपने निज सुख की उसे आजतक उपलब्धि नीहं हुई। अत: तुम अब पर से सुख की चाह मिटाकर अपने सुख को ही उपलब्ध करने हेतु लब्धिविधान करो अर्थात् क्षयोपशम, विशुद्धि लब्धि पूर्वक देशनालब्धि द्वारा प्रायोग्य लब्धि में प्रवेश कर करणलब्धि द्वारा मिथ्यात्व का नाश कर सम्यक्त्व ग्रहण कर श्रावक के व्रत अंगीकार करो। यह व्रत कर्मरूपी शत्रुओं को नाश करने वाला है और संसाररूपी समुद्र से पार उतारने वाला है। ___ उन कन्याओं ने मुनिराज के उपदेशानुसार श्रावकों की मदद से तत्त्वज्ञान का अभ्यास कर भेदविज्ञान की अविच्छन्न धारा प्रवाहित कर मिथ्यात्व और अनन्तानुबंधी कषाय को मिटाने वाली लब्धि (करणलब्धि) प्राप्त की। इसप्रकार लब्धिविधान व्रत का उद्यापन कर, श्रावकों के व्रत धारण किये, शीलव्रत धारण किया और अन्त समय में समाधिमरण को धारण करके मृत्यु को प्राप्त हुईं। यहाँ से पाँचवें स्वर्ग में जाकर स्त्रीलिंग का छेद करके प्रभावशाली देव हुईं और स्वर्ग में उत्तम प्रकार के भोग भोगे।
SR No.032266
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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