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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग - 17/73 राजा राज्य करता था । उस राजा के विशालाक्षी नामक रानी थी। वह इन्द्रानी, रतिदेवी आदि देवांगनाओं के समान सुन्दर थी । राजा विश्वलोचन को वह बहुत ही प्रिय थी । एक दिन रानी विशालाक्षी प्रसन्नता से अपनी चामरी और रंगिका नामक दो दासियों के साथ राजमहल के झरोखे में खड़ी थी। राजमार्ग में नाच, गान आदि से सुशोभित एक नाटक चल रहा था, जो समस्त प्रजाजनों के मन को मोहित कर रहा था । उस नाटक को देखते ही रानी विशालाक्षी का मन चंचल हो गया। वह अपने हृदय में विचार करने लगी कि इस राज्य सुख से मुझे क्या लाभ है? मैं तो एक अपराधी की तरह जैलखाने में बंधी पड़ी हूँ, संसार में वे ही स्त्रियाँ धन्य हैं जो अपनी इच्छानुसार जहाँ-तहाँ घूमती हैं, परन्तु मुझे मेरी इच्छानुसार घूमने-फिरने का सुख प्राप्त नहीं हुआ। अतः अब मैं इच्छानुसार घूमने-फिरने रूप संसार का फल शीघ्र और सदा के लिये चाहती हूँ। इस विषय में लज्जा मेरा क्या करेगी ? इसप्रकार रानी विचार करने लगी और छल-कपट में अत्यन्त चतुर ऐसी अपनी दोनों दासियों से कहा कि हे दासियो ! इच्छानुसार घूमने-फिरने के सुख से तो मनुष्य भव सफल होता है और वह काम भोग को देने वाला है। अतः अपने को यहाँ से जल्दी निकलकर इच्छानुसार घूमना-फिरना चाहिये । उसके उत्तर में दासियाँ कहने लगी कि आपने यह बहुत उत्तम विचार किया है। संसार में मनुष्य जन्म का फल यही है । - । तत्पश्चात् कामवासना से पीड़ित, अंधी और दुष्ट हृदय वाली, कुलाचार रहित, कुबुद्धि की धारक रानी अपने पाप कर्मोदय से दोनों दासियों के साथ घर से निकलने का उपाय करने लगी । झूठ बोलना, दुर्बुद्धि होना, कुटिल हृदय, छल-कपट करना और मूर्खता – इन दुर्गुणों का स्त्रियों में सहज ही बाहुल्य होता है। अत: रात्रि होते ही रानी ने रुई भरकर एक स्त्री का पुतला बनाया और उसे वस्त्र व गहनों से सुसज्जित किया तथा पूरा-पूरा स्वयं के रूप जैसा बनाकर पलंग पर सुला दिया । - रानी ने द्वारपाल आदि सेवकों को भी वस्त्राभूषण - धन आदि देकर अपने वश में कर लिया। तत्पश्चात् रानी ने पूर्वकृत पापकर्मोदय से दोनों
SR No.032266
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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