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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-17/74 दासियों को साथ लेकर किसी देवी की पूजा के बहाने मध्य रात्रि को राजमहल का परित्याग कर दिया तथा बाद में सुन्दर वस्त्राभूषण और राजसी चिन्हों को त्यागकर, भगवे वस्त्र पहिनकर योगिन का रूप धारण किया। महल में मिलने वाला भोजन तो छूट ही गया, अतः भीख माँगकर एवं वृक्षों के फलों को खाकर अपनी क्षुधा शान्त करने लगीं। इधर जब रात्रि के समय राजा विश्वलोचन रानी के महल में गया तब रानी को शृंगारयुक्त पलंग पर देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुआ, परन्तु रानी द्वारा योग्य व्यवहार करता हुआ न देखकर विचार करने लगा कि आज रानी को क्या हुआ है ? इसके शरीर में कोई रोग हुआ है या कोई अन्य ही बात है ? चिन्ता से व्याकुल राजा ने पलंग पर बैठकर रानी का स्पर्श किया तब समझा कि यह तो रानी का पुतला है और रानी का किसी पापी ने हरण कर लिया है। ऐसा जानकर राजा बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़ा। सेवकों द्वारा शीतोपचार से होश में आने पर राजा उस रानी के छल से अपरिचित उसी का गुण-गान करने लगा कि 'हे चन्द्रवदनी ! तू कहाँ गई ? तेरी रक्षा करने वाली दोनों दासियाँ कहाँ गईं ? इस महल में तो कोई आ भी नहीं सकता, फिर भी तेरा किस उपाय से हरण हो गया? या फिर कुलाचार से रहित दुष्ट तू स्वयं ही नष्ट हो गई? नीच मनुष्यों की संगति से सज्जन भी नष्ट हो जाते हैं। स्त्री जैसी अन्दर से होती है वैसी बाहर से नहीं दिखती है और जैसी बाहर से दिखती है वैसा कार्य नहीं करती है। स्त्रियों के चरित्र को भला कौन जान सकता है? अहा ! समस्त गुणों को धारण करने वाली रानी अपने दस वर्षीय पुत्र और पटरानी पद को छोड़कर कैसे चली गई ? इस प्रकार रानी के वियोग में बहुत समय तक दुःखी होकर राजा आर्त-रौद्र ध्यान पूर्वक मरण को प्राप्त हुआ। तब मंत्री आदि ने उसके पुत्र को राजगद्दी पर बिठाया। वह राजा का जीव मरकर विशालकाय हाथी हुआ। उसके पुण्योदय से उस वन में एक अवधिज्ञानी मुनिराज पधारे। मुनि ने हाथी को धर्मोपदेश दिया। उसे सुनकर हाथी ने श्रावक के व्रत धारण किये और अंत समय में
SR No.032266
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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