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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-17/60 देखो स्वरूप-आराधना का फल (डाकू भी सिद्ध हो गया) एक समय मगध राज्य की राजधानी राजगृही में प्रजापाल राजा राज्य करता था। उसके प्रियधर्मा नाम की शीलवती स्त्री थी और प्रियमित्र और प्रियधर्म नाम के दो पुत्र थे। कितने ही समय पश्चात् दोनों भाईयों ने वैराग्य प्राप्त करके जिनदीक्षा अंगीकार कर ली और घोर तपश्चर्या कर समाधिमरण पूर्वक अच्युत स्वर्ग में देव हुए। स्वर्ग में जाकर उनने प्रतिज्ञा की कि अपने में से जो पहले मनुष्य गति में जन्मेगा, उसे दूसरा देव सम्बोधन करके मोक्ष प्रदायनी जिनदीक्षा ग्रहण करायेगा। प्रियमित्र स्वर्ग से आकर उज्जैनी नगरी के राजा नागधर्म और उनकी स्त्री नागदत्ता के यहाँ नागदत्त पुत्र के रूप में पहले जन्मा। नागदत्त को सों के साथ क्रीड़ा करने का शोक था। जिससे अन्य लोग आश्चर्य चकित होते थे। ____ एक दिन स्वर्ग में रहने वाले (प्रियधर्म के जीव को) देव को अपनी प्रतिज्ञा का स्मरण हुआ। स्वर्ग का देव मदारी का वेष धारण करके दो भयंकर सो को लेकर उज्जैनी नगरी में आया और नगर में सों का खेल दिखाने लगा। कुमार नागदत्त को समाचार मिला कि कोई मदारी दो भयंकर जहरीले सर्प लेकर नगरी में आया है। कुमार ने तुरन्त मदारी को राजदरबार में बुलाया। गर्व में आकर कुमार नागदत्त ने मदारी से कहा कि तेरे जहरीले सो को बता, मैं उनके साथ क्रीड़ा करना चाहता हूँ। देखू तो सही कि वे कैसे जहरीले हैं? कुमार की अभिमानपूर्ण बात सुनकर मदारी के वेश में आया हुआ उसका देव मित्र कहता है कि “मैं राजकुमार के साथ ऐसी मजाक नहीं कर सकता कि जिसमें प्राण जाने का भय हो। कुमार! मान लो कि नाग आपको काट ले और आपकी मृत्यु हो जाए तो राजा मुझे तो प्राणदण्ड ही देंगे न। कुमार ने कहा कि नहीं-नहीं। मैं तुम्हें राजा से अभयदान दिलाता हूँ।
SR No.032266
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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