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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-17/52 वनपाल को इनाम दिया । सम्पूर्ण नगर में आनन्दभैरी बजाकर भगवान के - पधारने की सूचना दी। राजा अशोक सम्पूर्ण राज्य लक्ष्मी लोकपाल कुमार को देकर वासुपूज्य भगवान के समवसरण में पहुँचे। वहाँ भगवान की तीन प्रदक्षिणा करके भक्ति पूर्वक नमस्कार करके जिनदीक्षा अंगीकार की और वासूपूज्य भगवान के अम्रतास्रव नाम के गणधर हुए और उग्र आत्मसाधना करके अन्त में समस्त कर्मों का अभाव करके निर्वाणधाम - सिद्धालय पधारे । रोहिणी ने भी समस्त परिग्रह छोड़कर भगवान को नमस्कार करके सुमति आर्यिका से दीक्षा ग्रहण की और कठोर तपश्चर्या करके अन्त में सल्लेखना पूर्वक शरीर छोड़ा तथा अच्युत स्वर्ग में देव पर्याय धारण की। आगामी भवों में मनुष्य पर्याय धारण कर जैनेश्वरी दीक्षा अंगीकार कर मोक्ष प्राप्त करेगी। इसप्रकार घोर पाप करने वाले जीव भी जिनधर्म की शरण पूर्वक अपने आत्मा की शरण लेने पर शाश्वतसुख - मोक्षलक्ष्मी को वरते हैं, कारण कि घोर विकारभाव भी आत्मा के ऊपर-ऊपर तैरते हैं, वे आत्मस्वभाव में कभी भी प्रवेश नहीं करते । पर्याय में ही रहते हैं और पर्याय स्वयं क्षणवर्ती है। अतः यदि यह जीव अपने स्वभाव पर दृष्टि करे तो पर्याय के दुःख स्वयमेव समाप्त हो जाते हैं; क्योंकि वे स्वप्न के समान अत्यन्त क्षणभंगुर हैं। नट के स्वांगों की तरह क्षणिक स्वांगरूप होने से अगले ही समय बदल जाते हैं। आत्मा की शक्ति सामर्थ्य तो सदा शुद्ध ही है । उस शुद्ध परमेश्वर शक्ति का विश्वास करने पर, स्वानुभूति करने पर आत्मा पर्याय में साक्षात् परमेश्वर हो जाता है। ऐसा अद्भुत आश्चर्यकारी आत्मा का स्वरूप है। कुमार अशोक की तरह हमें भी ऐसे अपने अद्भुत आत्मस्वरूप को पहिचान कर उसमें अपनापन स्थापित कर शाश्वतसुख को प्राप्त करना चाहिए। जो बाहर से मर जाए उसके लिए यह धर्म है ।
SR No.032266
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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