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________________ .. जैनधर्म की कहानियाँ भाग-17/51 गये। अन्त में क्षपकश्रेणी मांडकर केवलज्ञान प्राप्त किया और अघातिया कर्मों का भी नाशकर निर्वाण पधारे। .. कुमार अर्ककीर्ति क्रम-क्रम से चक्रवर्ती की विभूति प्राप्त कर आनन्द के साम्राज्य में रहे। एक दिन संसार की क्षणभंगुरता का प्रसंग देख वैराग्यी हो, अपने पुत्र को राज्य भार सोंष जिनदीक्षा लेकर उग्र तपश्चर्या पूर्वक आत्म साधना करने लगे, अन्त समय सल्लेखना पूर्वक शरीर छोड़कर बाईस सागर • की स्थिति वाले अच्युत स्वर्ग में देव हुए। पूतिगंधा ने भी श्रावकों के व्रतों का पालन कर मंदकषाय पूर्वक समाधिमरण करके अच्युत स्वर्ग में पन्द्रह पल्योपम स्थिति वाली पूर्व के अर्ककीर्ति कुमार, जो देव हुए थे, उनकी महादेवी हुई। फिर वहाँ से चयकर देव का जीव तो अशोककुमार के रूप में जन्म हुआ और पहले भव की पूतिगंधा का जीव स्वर्ग में से चयकर चम्पा नगरी के मधवा राजा की रोहिणी नाम की पुत्री हुई है, जो तुम्हारे पास ही बैठी है। .. राजा अशोक मुनिराज द्वारा अपने भवान्तरों को सुनकर अपने शुभाशुभ परिणामों व उनके फलों को जानकर संसार से उदास होकर भी दीक्षा न ले सके और रानी रोहिणी भी पूर्वभवों को सुनकर अन्तर में उदास हो गई, पर . राजा अशोक से अतिराग होने के कारण दीक्षा लेने का भाव होने पर भी 'दीक्षा न ले सकी। अत: वे दोनों मुनिराज को नमस्कार करके तब तो लौटकर हस्तिनापुर आ गये; परन्तु एक दिन जब राज-रानी सिंहासन पर बैठे थे, तब रानी रोहिणी ने अशोक के कान के पास चमकता हुआ सफेद बाल देखा और वह बाल तोड़कर अशोक के हाथ में दे दिया। सफेद बाल देखकर अशोक को एकदम वैराग्य जागृत हो गया और वह संसार, शरीर भोगों की निन्दा करने लगा। उसी समय वनपाल ने आकर राजा से कहा कि हे राजन् ! भगवान वासुपूज्य प्रभु समवसरण सहित अपने उद्यान में पधारे हैं। राजा ने यह सुखद समाचार सुनकर सिंहासन से उतरकर भगवान की दिशा में नमस्कार किया,
SR No.032266
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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