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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-17/53 काँच के लोभी को मिला रत्नों का खजाना राजगृह नगर का राजा सुबल अपनी अंगूठी में रत्नजड़ित स्वर्ण की बहुमूल्य मुद्रिका पहने हुए था। स्नान करने से पूर्व जब वह अपने शरीर पर तैलमर्दन कराने को तैयार हुआ तो उसने नग खराब हो जाने के भय से अपनी मुद्रिका उतार कर अपने राजपुरोहित सूर्यमित्र को सम्हला दी। .. .. सूर्यमित्र अपनी अंगुली में मुद्रिका पहन कर अपने घर चला गया। वह स्नान आदि कार्य करके वापस राजसभा में आने को तैयार हुआ तो अपनी अंगुली में मुद्रिका न देख बहुत चिंतित हुआ। अत: परमबोध नामक निमित्तज्ञानी से मुद्रिका कहाँ मिलेगी अथवा नहीं मिलेगी - ऐसा पूछा। . 'अवश्य लाभ होगा' इतना मात्र कहकर वह निमित्तज्ञानी वापस अपने घर चला गया। पर सूर्यमित्र तो खेद-खिन्न अवस्था में महल में ही बैठा रहा। .. उस समय उस नगर के बाहर उद्यान में पूज्यश्री सुधर्माचार्य महाराज चतुर्विध संघ सहित विराजमान थे। यह जानकर सूर्यमित्र को विचार आया कि ये जैन साधु भव्यजीवों के हितकारक, तीनलोक से पूज्य हैं चरण जिनके और बहुतं ज्ञानी होने से अपने ज्ञाननेत्र से मुद्रिका को प्रत्यक्ष बता देंगे। इसलिये इनके पास गुप्तरूप से जाकर मुद्रिका के बारे में जानकारी प्राप्त की जाय। . . . जिसकी भली होनहार है और काललब्धि पक गई है - ऐसा वह सूर्यमित्र पुरोहित सूर्यास्त से पहले ही मुद्रिका के सम्बन्ध में पूछने हेतु शीघ्र ही वन में श्री सुधर्माचार्य मुनिराज के समीप जा पहुँचा। वे ज्ञान-वैराग्य, ऋद्धि आदि अनेक गुणों के आगार (घर) हैं, शरीरादिक से निर्मोही, मोक्ष साधन में लवलीन ऐसे योगीश्वर को देख कर वह राजपुरोहित प्रश्न पूछने में कुछ सकुचाया, लेकिन अपनी कार्यसिद्धि के लिए आतुर हो वह उनके चारों ओर घूमने लगा। कुछ समय घूमने के बाद उसे ऐसा भाव आया- ये तो दिगम्बर साधु हैं अत: सूर्यास्त होने के बाद तो बोलेंगे नहीं, इसलिये अब मुझे अपना
SR No.032266
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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