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________________ - जैनधर्म की कहानियाँ भाग-1.7/39 . . . यह विचार जानकर राजा के पास आकर समझाया और उन्हें शान्त कर दिया। कुछ समय व्यतीत होने पर एकबार वे दोनों देव फिर से वहाँ आये और उन्होंने महामुनि भीम को देखकर नमस्कार किया और उनसे धर्मोपदेश सुना। तत्पश्चात् देव ने कहा कि हे स्वामिन् ! आपके इस छोटी उम्र में दीक्षा • लेने का कारण क्या है ? उसके उत्तर में मुनिराज ने कहा - . “मैं इस पुण्डरीकणी नगरी के एक दरिद्र कुल में जन्मा था। मेरा नाम भीम है। एक समय अवसर मिलने पर मैंने एक मुनिराज से धर्म का उपदेश सुना। उस समय मुझे जातिस्मरण ज्ञान हो गया, जिससे मुझे अपनी पूर्वभव की सब बातों का पता चल गया। .....मैं विचार करने लगा कि मैं अपने पहले भव में भवदेव नाम का वैश्य पुत्र था और उस भव में मैंने रतिवेगा और सुकान्त को जलाकर मारा था..... पश्चात् जब वे मरकर कबूतरकबूतरी हुए तब मैंने बिलाव बनकर पूर्वभव के द्वेषवंश उन्हें मारा था। तत्पश्चात् वे हिरण्यवर्मा और प्रभावती हुए तब मैं विद्युतचोर बना और जब वे दोनों मुनि-आर्यिका के वेश में थे, तब मैंने उन्हें जलती हुई चिता में जला दिया। इस महापाप के कारण महादुःखों का स्थान जो नरक, मैं वहाँ गया और मुझे वहाँ अनेक प्रकार - भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी मारन-काटन, छेदनभेदन आदि के कष्ट सहन करने पड़े। नरक में से निकलकर मुझे संसार चक्र में जो चक्कर लगाने पड़े, उससे मेरा आत्मा इतना संक्लेशित हो गया कि मैं उसका वर्णन शब्दों में नहीं कर सकता । अतः उसी समय मैं विरक्त होकर दिगम्बर साधु हो गया।" इस विचित्र कथा को सुनकर इन देवों को बहुत ही आश्चर्य हुआ और उन्हें अवधिज्ञान द्वारा समस्त बातें स्पष्टरूप से ज्ञात हो गईं। “जिनको आपने पहले कितनी ही बार मारा है, वे दोनों हम ही हैं" - ऐसा कहकर उन्होंने भीम मुनि की वन्दना की और दोनों स्वर्ग में वापस चले गये। यहाँ महामुनि भीम ने बारह भावनाओं का चिंतवन तथा कठिन तपश्चर्या करते हुए क्षपक श्रेणी आरोहण कर घाति कर्मों का नाश कर केवलज्ञान प्राप्त किया और फिर अघाति कर्मों का नाश करके मोक्षपद प्राप्त किया।
SR No.032266
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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