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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-17/40 अहा ! देखो, भव-भव में बैर के परिणाम धारण करके स्त्री-पुरुष को मारा, कबूतर-कबूतरी को मारा और मुनि-आर्यिका को जिन्दा जला दिया - ऐसे पापी भवदेव के जीव ने भी क्षणभर में संसार के दुःख से विरक्त होकर द्रव्यदृष्टि के बल से आत्मध्यान लगाकर उन मंदकषायीजयकुमार और सुलोचना के जीव के पूर्व ही मोक्ष प्राप्त कर लिया। अहा ! वस्तु स्वरूप की अगाध महिमा का क्या कहना। अहा ! निजात्मा की साधना का ये ही तो चमत्कार है। भव-भव में अन्य जीवों को मारने वाला स्वयं उनके पूर्व मोक्ष चला गया। यह सब निर्दोष त्रिकाली चैतन्य सामान्य स्वभाव के आश्रय का ही प्रताप है। यहाँ सुलोचना अपने पति जयकुमार को पूर्वभव का उक्त वृतान्त सुनाकर याद दिलाती है कि हे नाथ ! उस समय हम दोनों महामुनि भीम की वन्दना करके वापस स्वर्ग चले गये थे और स्वर्ग से चयकर आप राजा सोमप्रभ के पुत्र कुमार जयदेव हुए और मैं राजा अकम्पन की पुत्री सुलोचना हुई हूँ। और यही कारण है कि कबूतरों के जोड़े को देखकर अपने को जातिस्मरण ज्ञान हो गया। इसप्रकार अपने पूर्वभवों की कथा सुनकर वे दम्पत्ति और उनके परिवारजन अत्यन्त आश्र्चकारी ऐसे वस्तुस्वरूप, वस्तु के परिणमन एवं जीव के परिणामों के वैचित्र्य को जानकर संसार से उदास वृत्ति वाले होकर गृहस्थ के योग्य धर्मकार्यों में संलग्न रहते हुए समय व्यतीत करते रहे। एक दिन अनेक राजाओं द्वारा पूजित राजा जयकुमार संसार की क्षणभंगुरता से उदास हो, अनित्य संसार का त्यागकर आदिनाथ स्वामी के समवसरण में पहुंचे। वहाँ उन्होंने धर्म श्रवण करते हुए संसार, शरीर और भोगों से विरक्त हो दिगम्बर दीक्षा धारण करली तथा थोड़े ही दिनों में आदिनाथ स्वामी के बहत्तरवें गणधर बने और अन्त में घातिकर्मों का नाश करके केवलज्ञानी बन गये। सुलोचना भी आर्यिका बनकर स्वर्ग में गई और वहाँ से आकर मनुष्य होकर मुक्ति प्राप्त करेगी।
SR No.032266
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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