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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-17/19 __ एक बार ये पूर्णभद्र और मणिभद्र रथ में बैठकर मुनिराजों के दर्शन के लिये जा रहे थे। वहाँ मार्ग में एक चाण्डाल और कुत्ती को देखकर उन्हें स्नेह उत्पन्न हुआ। अत: वे गुरु के समीप जाकर वन्दन करके पूछने लगे कि हे प्रभो ! हमको चाण्डाल और कुत्ती को देखकर स्नेह उत्पन्न होने का क्या कारण है ? तब अवधिज्ञानी मुनिराज कहते हैं कि ये विप्र के भव में तुम्हारे माता-पिता थे, तथा अपने पूर्व पाप के उदय से नरक में गये थे। अब नरक के दुःख भोगकर चाण्डाल और कुत्ती हुए हैं। .. श्रीगुरु के वचन सुनकर पूर्णभद्र और मणिभद्र ने उनके समीप जाकर उनके और अपने पूर्वभव सम्बन्धी समस्त वृतान्त बताते हुए उन्हें धर्मोपदेश दिया। वे दोनों भी उपदेश सुनकर शान्तचित्त हुए। चाण्डाल की आयु मात्र एक माह शेष थी। अत: उसने श्रावक के व्रत ग्रहण करके चारों प्रकार के आहार का त्याग कर समाधिमरण किया। इस कारण वह देव हुआ। और उस कुत्ती ने भी श्रावक के व्रत पालन कर समाधिमरण किया और अयोध्या के राजा के घर पुत्री हुई। उसकी यौवनावस्था होने पर राजा ने स्वयंवर रचा। वह वरमाला हाथ में लेकर वर को निरखती थी, उसी समय वह देव नन्दीश्वर द्वीप की वन्दना हेतु वहाँ से निकला। उसने कन्या को देखते ही उसके कान में कहा कि- “हे अग्निज्वाला! तू नरक के दुःख भूल गई और अब विवाह करती है। अरे ! तुझे धिक्कार है !!". देव के वचन सुनकर उस राजपुत्री ने संसार को असार जानकर सम्यक्त्व अंगीकार करके आर्यिका के व्रत धारण किये और परिग्रह का त्याग किया। इस प्रकार उसने नव यौवन में ही व्रत अंगीकार किये। पूर्णभद्र और मणिभद्र भाई भी श्रावक के व्रत पालन करके समाधिमरण करके स्वर्ग में देव हुए और स्वर्ग का सुख भोगकर वहाँ से च्युत होकर राजा हेमनाथ की धरावती नाम की रानी के मधु और कौटभ नामक पुत्र हुए। दोनों पुत्रों के बड़े होने पर राजा हेमनाथ ने मधु को राजा और कौटभ को युवराज पद देकर मुनिव्रत धारण कर लिये।
SR No.032266
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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