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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-17/20 जब मधु और कौटभ दोनों भाई सुख पूर्वक राज्य करते थे; तब एक भीम नाम के राजा का एक क्षुद्र सामन्त, जिसका कि एक पहाड़ पर गढ़ था, वह उस गढ़ का गर्व करके राजा मधु के राज्य में उपद्रव करने लगा। राजा मधु ने उसे वश में करने के लिये जाते समय मार्ग में वटपुर नामक नगर में पड़ाव डाला। वहाँ के राजा वीरसेन ने राज मधु का अतिविनयसन्मान किया। राजा वीरसेन की रानी चन्द्राभा अतिरूपवती, मधुभाषिणी सुन्दरी थी। वह राजा मधु के मन का हरण करती है। यद्यपि राजा मधु की बुद्धि शास्त्रों में दृढ़ है तो भी चन्द्राभा को देखकर रागरूप हो गई। जिस. प्रकार चन्द्रकांत मणि की शिला दृढ़ है तो भी चन्द्रमा को देखकर नरम हो जाती है। राजा मधु मन में विचारता है कि यदि मैं इस रूप-सौभाग्य से युक्त होकर राज्य करूँ तो राज्य सुखरूप है, इस स्त्रीरत्न के बिना यह राज्यलक्ष्मी श्रीविहीन है। जैसे चन्द्रमा कलंकी होने पर भी चांदनी से शोभता है, वैसे ही मुझे परस्त्री हरण का कलंक तो लगेगा, परन्तु हरण करने का मन हुआ। .. राजा मधु बुद्धिमान होने पर भी हतबुद्धि हो गया। उसके बुद्धिमान प्रधानमंत्री ने कहा कि इस समय राजा भीम को वश करना है। अतः अन्य उपद्रव मत करो। यह बात राजा मधु को भी ठीक लगी। और वह राजा भीम को वश करके अयोध्या आया। चन्द्राभा के प्रति मन आसक्त है इसलिये बसन्त ऋतु का महोत्सव रचाया, जिसमें सभी राजाओं को आमन्त्रित किया। उस महोत्सव में रानी चन्द्राभा सहित राजा वीरसेन भी पधारे। ____ महोत्सव समाप्ति पर उसने समस्त राजाओं को तो सपरिवार वस्त्राभरण देकर विदा कर दिया; परन्तु राजा वीरसेन को विशेष सन्मान करके अकेले ही वटपुर के लिये विदा किया और उसकी रानी चन्द्राभा को यह कहकर अपने ही पास रोक लिया कि “अभी रानी चन्द्राभा के योग्य आभूषण तैयार हो रहे हैं, सो थोड़े ही दिनों में उनके योग्य आभूषण तैयार हो जायेंगे। तब हम चन्द्राभा को विदा करेंगे।" राजा वीरसेन तो भोला था, अत: वह राजा मधु की इस बात का विशवास कर अकेला ही अपने राज्य वापस चला गया। तत्पश्वात् राजा मधु ने चन्द्राभा को अपने घर में रखा, पटरानी का पद दिया और उसके साथ पत्नि की भाँति व्यवहार करने लगा! राजा मधु
SR No.032266
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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