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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-16/41 क्योंकि उसके ऊपर शील भंग करने का कलंक भी लगा हुआ है और वह अभी सिद्ध नहीं हुआ है। अत: उसमें सत्यता क्या है ? यह जानने के लिए सर्वप्रथम यह अवसर उसे देना जरूरी है।
मनोरमा क्या तुम यह परीक्षा देने के लिए तैयार हो ?
मनोरमा - महाराज की जैसी आज्ञा । “हे देवाधिदेव जिनेन्द्र भगवान ! यदि मैंने स्वप्न में भी कभी मन-वचन-काय से परपुरुष को पिता, भाई या पुत्र के अलावा किसी अन्य दृष्टि से न देखा हो और शीलधर्म का भलीभांति पालन किया हो तो यह बन्द द्वार खुलकर मेरे शील की लाज रखे।" - ऐसा कहकर ज्यों ही मनोरमा ने फाटक खोला, त्यों ही उसके स्पर्श मात्र से ही फाटक गड़गड़ाहट के साथ खुल जाते हैं। सब हर्ष से जय जयकार कर उठते हैं, मनोरमा की जय, शीलधर्म की जय !)
धृतिषेण - प्रजाजनो ! आज देवी मनोरमा के शीलव्रत ने नारियों का मस्तक गौरव से ऊँचा कर दिया है। शीलव्रत की अचिंत्य महिमा विश्व को बतलाकर अपनी कीर्ति कौमुदी सर्वत्र फैला दी, भविष्य में भी संसार इनके गुणगान कर अपनी जिह्वा पवित्र करेगा। धन्य हो देवी मनोरमा ! धन्य हो।
सुव्रता - (अत्यन्त आह्लादित होकर मनोरमा को गले लगाती है) वधू मनोरमा ! मैंने तुम्हारे साथ अत्यन्त कठोर व्यवहार किया है; जिससे तुम्हें असह्य कष्टों का सामना करना पड़ा। मुझ अभागिन की बुद्धि विवेक पर जैसे ताला पड़ गया था, जिससे मैं बहुत अधिक उद्विग्न हो निर्दय बन गई थी। दया तो मुझसे कोसों दूर भाग गई थी। मैं अपने अज्ञानजन्य घृणित कृत्य पर लज्जित हूँ। अब मैं तुमसे किस मुंह से क्षमा याचना करूँ। मेरा अपराध अत्यन्त जघन्यतम है। अपनी अदूरदर्शिता से मैंने जो यह पाप का बन्ध किया है, न जाने वह किन जन्म-जन्मान्तरों तक काट पाऊँगी। ___ महीपाल - सचमुच मनोरमा मेरे पीछे से तुम्हें घर से निकाला गया और इस अशोभनीय घटना का जन्म हुआ। तुम जैसी कोमलांगी को अल्पवय में कैसे-कैसे कष्टों का सामना करना पड़ा। इसकी कल्पना भी हृदय को प्रकम्पित कर देती है। इन आकस्मिक विपत्तियों के श्रवणमात्र