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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-16/42 से रोंगटे खड़े हो जाते हैं। धन्य है तुम्हारी धीरता ! क्षमायाचना करने में भी मैं लज्जित हूँ।
मनोरमा - माताजी ! पिताजी !! ऐसा न कहिये, मेरे पूर्वोपार्जित कर्मों काफल ही मुझे मिला है। प्राणीजैसे कार्य करता है तदनुसार उसे फल प्राप्त होताहै।जैसीकरनीवैसीभरनी। नारीकाआभूषणशीलहीहै।इसीसे उसकी शोभा है। पूर्वकृत पुण्योदय से एवं भली होनहार से निस्सहाय अवस्था में भी मुझमें अपने शील की रक्षा करने का बल जाग्रत हुआ। आप लोगों का कोई दोष नहीं। आप मेरे लिये जैसे पहले पूज्य थे वैसे आज भी आदरास्पद हैं। " आप सबका शुभ आशीर्वाद ही मेरे जीवन की सफलता है।
इसके बाद 11 राजा ने मंत्री को आदेश दिया कि पता लगाओ कि "इस घटना का सूत्रपात कहाँ से
हुआ।"
मंत्री को गुप्तचरों के द्वारा इस पूरे घटनाक्रम का अन्वेषण करने पर ज्ञात हुआ कि किसप्रकार राजकुमार ने अपने विषय सेवन हेतु अपनी दूती के द्वारा यह सब कराया। सत्य का यथार्थ
ज्ञान होने पर राजा धृतिषेण ने राजकुमार और दूती दोनों को इस अपराध के लिए राज्य से निकाल कर निष्पक्ष और सत्य के पक्ष में न्याय किया। - ऐसे न्यायप्रिय राजा के होते हुए भी पापोदय आने पर निष्कंलक को भी कंलक का दुःख भोगना पड़ता है। “यही तो है विधि का विधान और योग्यता का निधान"