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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-16/39 ग्रस्त है। महाराज को स्वप्न द्वारा ज्ञात हुआ है कि मात्र शीलवती नारी के स्पर्श से ही वे द्वार खुल सकेंगे। अतः समस्त नारी समाज से विनती है कि वे मुख्य नगर द्वार पर आकर अपने शील के प्रताप से द्वार खोलकर प्रजा का कष्ट निवारण करें।
दशवाँ दृश्य (नगरद्वार बन्द हैं भूपति धृतिषेण, महामात्य यशोधर व अन्य सदस्यगण बैठे हुये दिख रहे हैं। जनता-जनार्दन की भीड़ भी धीरे-धीरे मुख्य नगरद्वार की ओर आ रही हैं।)
यशोधर – महाराज की आज्ञा हो तो मैं अपनी एक बात कहूँ ?
धृतिषेण - आपको अपनी बात कहने के लिए मेरी आज्ञा की जरुरत कबसे महसूस होने लगी। आप अपना मशवरा व्यक्त करें। __यशोधर :- महाराज ! जबतक नगर से अन्य शीलवती नारियाँ आती हैं, तबतक नगर सीमा पर रुकी हुई मनोरमा को भी महल के गुप्त दरवाजे से बुला लिया जाए और इसका पहला अवसर मनोरमा को ही दिया जाए, ताकि उस पर लगे कलंक की बात का भी निर्णय हो सके और नगर पर आये संकट का निवारण भी सहजता से हो सके।
धृतिषेण - महामात्य यशोधर ! मैं तो नगर पर आये इस संकट के सामने यह भूल ही गया कि आज मुझे यह भी निर्णय करना था। आपने मेरा कार्य भी बहुत आसान कर दिया। शीघ्रता करो, मनोरमा को सम्मान सहित शीघ्र लाने का प्रबन्ध करो।" ___ मनोरमा- (आकर महाराज को अभिवादन कर कहती है -) महाराज ! मैं आपके आदेशानुसार यहाँ आ तो गई हूँ, पर क्या मैं इस कलंक को लेकर उस घर में या इस जग में सुख से जी पाऊँगी ? अतः आप मेरे शील की परीक्षा कर पहले मेरे ऊपर लगे इस कलंक को मिटाईए अन्यथा मैं इस पर्याय के साथ जीने से तो मरना अच्छा समझती हूँ।