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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-16/38
(कोलाहल सुनाई पड़ता है) धृतिषण - प्रतिहारी ! ओ प्रतिहारी ! प्रतिहारी - कहिये क्या आज्ञा है महाराज !
धृतिषेण - यह कोलाहल कैसा है ? पता लगाकर मुझे शीघ्र सूचित करो?
प्रतिहारी- जो आज्ञा (जाता है एवं पुनः आता है) महाराज ! आपसे कुछ नागरिक मिलना चाहते हैं।
धृतिषण - उन्हें मेरे पास भेज दो।। प्रतिहारी – जो आज्ञा (चला जाता है।)
(नागरिकों का प्रवेश) सब मिलकर – महाराज की जय हो!
प्रथम नागरिक - महाराज ! आवागमन के सभी मार्ग अवरुद्ध हैं। प्रजा के सारे कार्य ठप्प हो गये हैं। न जाने यह किसी शत्रु की करतूत है अथवा दैवी प्रकोप ही है। महाराज ! हम सब प्रजाजन आपसे यही निवेदन करने आये हैं। कृपया शीघ्रातिशीघ्र हमारे कष्टों को दूर करें।
धृतिषेण - मेरे प्यारे स्नेही बन्धुओ ! आप निश्चिन्त हो। आपके कष्टों का निवारण थोड़े ही समय में हो जायेगा; क्योंकि हे प्रजाजनो ! “आज रात्रि में मुझे देवी स्वप्न आया है कि नगर के अवरुद्ध द्वार पतिव्रता शीलवती नारी के चरणस्पर्श मात्र से ही खुल सकेंगे।"
अस्तु ! आज सब अपने-अपने घरों की गृहलक्ष्मियों को नगरद्वार पर भेजें, ताकि वे नगर निवासियों का संकट निवारण कर अपनी निर्मल तेजोपुञ्ज धवलकीर्ति ध्वजा विश्व में फहरा सकें। - ऐसी घोषणा करवा दीजिए।
उद्घोषक - (डंका बजाकर उच्च स्वर में) माताओ ! बहिनो! सुनिये, सुनिये, सुनिये, श्रीमन्महाराजधिराज राज-राजेश्वर वैजयन्ती नरेश की आज्ञानुसार यह घोषणा की जाती है कि नगर द्वार बन्द होने से प्रजा संकट