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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-16/18 भंग कर व्यभिचारिणी ने दोनों कुलों की निर्मल कीर्ति में कलंक लगा दिया। 'हाथ कंगन को आरसी की क्या आवश्यकता' (कमरे में क्रोधित हो चहल कदमी करती है) अच्छा हुआ जो श्यामा बता गई। नहीं तो न जाने भविष्य में क्या-क्या देखना पड़ता .........(जोर से पुकारती है) सुसीमा....... सुसीमा - आई माताजी ! (सम्मुख आकर) कहिये क्या आज्ञा है ? सुवृत्ता - सेठजी को अभी इसी समय यहीं अंत:कक्ष में शीघ्र बुला लाओ। सुसीमा- अच्छा सुवृत्ता- (सोचते हुये) क्या करना चाहिये, कुछ समझ में नहीं आता। कैसे इस दुष्टा से पिंड छूटे। चुपचाप विष दे दूं तो अच्छा रहेगा। सांप मरे नलाठी टूटे।' मर भी जायगी और किसी को पता भी न लगेगा। लोक निंदा से कुल की रक्षा भी हो जायगी।...... पर नहीं.....उसकी हत्या का पाप कौन ले ? सुसीमा - माँ जी ! सेठजी राजदरबार में गये हैं। आने का निश्चित समय नहीं बतला गये। (चली जाती है) सुवृत्ता - सेठजी कौन जाने कब तक आवे ? मुझे अकेले ही निर्णय करना होगा। अब उसका इस घर में रहना क्षणभर भी सह्य नहीं। अपनी लाज रखना है तो चुपचाप बिना किसी माया-मोह के घर से निकाल देना चाहिए। उसका निवास स्थान भयंकर निर्जन वन ही है। आप ही विलखविलख प्राण दे देगी। किये का फल भी भुगतेगी। जाऊँ, विलम्ब न करूँ उस कलमुँही को निकाल घर की शुद्धि करूँ....। सेठजी से परामर्श कर लेती तो उनकी सम्मति ज्ञात हो जाती, पर .....रूकूँ कैसे ?.......वे मुझसे विरुद्ध न होंगे। सारथी यमदण्ड को बुलाकर मनोरमा के वनवास का आदेश दिये देती हूँ। (चली जाती है।) (परदा गिरता है)
SR No.032265
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 16
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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