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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-16/17 दूती - (यहाँ वहाँ देखती हुई, कोई सुन न ले इस प्रकार का अभिनय करती है।) माताजी ! कहने में संकोच होता है, पर कहे बिना रहा नहीं जाता। तुम्हारे पुत्र तो परदेश गये और पुत्रवधु मनोरमा ने राजकुमार से घनिष्ठता स्थापित कर ली। रोज ही वह देवदर्शन के बहाने महलों में जाती है। मैं राजकुमार की दासी हूँ, पर एक भले घर की लाज लुटते नहीं देख सकती। अतः आपको आगाह करने आई हूँ। सुवृत्ता – खबरदार ! जो ऐसी बातें मुँह से निकालीं। मेरी सती जैसी बहू ( ऐसा घृणित लांछन लगाते तुझे शर्म नहीं आती। दूती - हाय, जमाना बड़ा खराब है। मैं तो यह सोचकर आई थी कि आपके कुल की बदनामी न हो और आप उस पाप को आगे न बढ़ने दें। मेरा क्या ? सच में मुझ अभागिन को करना भी क्या ? नहीं देखा गया माताजी, सो आई थी। आप जाने और आपकी बहू। सुवृत्ता - यह सच है ? यदि बात झूठ हुई तो ? दूती - तो मेरा सिर धड़ से अलग करवा देना । (दृढ़ता से ) माँ जी ! यदि मैं झूठ बोलूँ तो मेरी जिह्वा जल जाये, मुझे कोढ़ निकले। अंधेपन सा दुःख दूसरा नहीं है। इन आँखों की कसम, ये दोनों फूटें जो यह बात झूठ निकले तो। सुवृत्ता – (अत्यन्त दुःखी होकर विस्मयपूर्वक) मनोरमा दुश्चरित्रा हो सकती है ? दूती- अच्छा माँ जी, मैं जाती हूँ। सारा काम छोड़कर आई थी। मुझे माफ करना अभी किसी को मालूम नहीं है बहू को चुपचाप समझा लेना। (चली जाती है) सुवृत्ता- (स्वगत) विद्वानों ने सच कहा है-नारी नागिन है। स्त्रीचरित्रं पुरुषस्य भाग्यं, देवो न जानाति कुतो मनुष्यः।' अभी चन्द दिन ही तो हुये हैं सुखनन्द को घर छोड़े और इस पापिन ने अपना शील बेच डाला। शीलव्रत
SR No.032265
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 16
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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