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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-16/16
तीसरा दृश्य - समय दोपहर
(सुखानन्द की माँ सुवृता का कमरा) सुवृता का कमरा भी अच्छा सजा हुआ है। वे इस समय शीतल पाटी पर विश्राम कर रहीं हैं। उपर्युक्त दूती यहाँ आती है। अपने अपमान का प्रतिशोध लेने के लिये सुवृता के कान भरती है।
दूती-(हँसकर) अरे आप मुझे पहिचानी नहीं। मैं तो आपको पहिचानती हूँ। हम गरीब को कौन जाने ? आपके नगर के राजकुमार की दासी हूँ। यहाँ से निकली, तो सोचा आप से मिलती चलूँ। कुछ आवश्यक बात करना थी, पर आपके आराम में बाधा डालकर मैंने अच्छा नहीं किया। क्षमा करें, मैं जाती हूँ।
सुवृता- मैं तो जाग ही रही थी। बैठ जा कह, क्या कहना चाहती है।
दूती- एक बात है,
पर .........
सुवृता - पर क्या, बोल ना, रुक क्यों गई ?
दूती - कैसे कहूँ, कहते हुये मुझे डर लगता है।बड़ा साहस करके आप तक आ तो गई परन्तु...नहीं...अब नहीं कहूँगी। आपको व्यर्थ ही कष्ट दिया।
सुवृता - अरी कह तो सही क्या बात है ? दूती - नहीं माँ जी, डर लगता है। सुवृत्ता - अच्छा, मैं तुझे अभय करती हूँ, कह।