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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-16/15 मनोरमा – (क्रोधित होकर बीच ही में) तुम्हें मेरे पति के विषय में उचित-अनुचित निर्णय देने का अधिकार किसने दिया ? तुम केवल अपनी बात कह सकती हो। दूती - सेठानीजी ! आप तो गुस्सा हो गयीं। पर गुस्से में भी लाललाल मुखारविंद अत्यन्त सुन्दर प्रतिभासित हो रहा है। इसी सुन्दरता पर तो हमारे राजकुमार लाख-लाखवार न्योछावर हैं। चलो सुन्दरी, रानी बनकर पाहलों में नित नये सुखों का उपभोग....... मनोरमा – (अत्यन्त क्रोधित हो) अरी दूती। ऐसी निकृष्ट बातें मुझ शीलवन्ती से कहते तुझे लज्जा नहीं आती ! तेरा राजकुमार भी बड़ा ही धूर्त है, नीच है, पापी है जो ऐसी दुश्चेष्टा करता है। पापिष्ठा, निकल यहाँ से। दूती - तनिक शांति से विचार करो सुन्दरी ! राजकुमार तुम्हारी नित्य अभ्यर्थना करेगा। इस वैजयन्ती राज्य का अतुल वैभव तुम्हारे पैरों तले लोटेगा और एक दिन यह आयगा; जब यहाँ की राजरानी कहलाओगी। ___मनोरमा-आग लगे तेरे वैभव में । निकल बाहर । मुझे नरक में घसीटना चाहती है चांडालिन (हाथ से बाहर जाने का संकेत करती है) दूती - एक-बार सोच लो सुन्दरी ! यह कंचन सी काया सुखाने योग्य नहीं। मनोरमा - (दुतकारती हुई) जा-जा बड़ी आई उपदेश देने। दूती - जाती तो हूँ; परन्तु तुम्हारे द्वारा मेरे अपमान का प्रतिफल अच्छा न होगा। (चली जाती है) मनोरमा - (स्वगत, व्यंगात्मक स्वर से) अपमान का प्रतिफल अच्छा न होगा। क्या कर लेगी ये मेरा........(दुखित हो) कैसी दुनियाँ है ? ये विषयाभिलाषी कामुक पुरुष शीलवतियों पर आँखें उठाते हैं। उनका शील लूटना चाहते हैं, धिक्कार है इन पापियों को। (परदा गिरता है)
SR No.032265
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 16
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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