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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-16/14
दूसरा दृश्य - समय दोपहर (दोनों चले जाते हैं। सुखानन्द के प्रस्थान के एक सप्ताह पश्चात्)
कमरा सजा हुआ सुन्दर प्रतीत हो रहा है। दीवारों पर चित्र लगे हैं। एक ओर सुन्दर पलंग पर मखमली ब्रिछायत बिछा है, दो चार कुर्सियां पड़ी हैं। जमीन पर आसनी बिछाकर मनोरमा बैठी है। सामने चौरंग रखी है जिस पर अध्ययन ग्रंथ है, वे अध्ययन में तल्लीन हैं। किसी के आने की आहट पाकर द्वार की ओर देखती है, इतने में एक कुबड़ी स्त्री झुकी हुई विचित्र चाल चलती हुई सामने आ जाती है। अपरिचिता को देखकर मनोरमा एकटक देखती रहती है। फिर सहसा उसे बैठने के लिये आसन देती है। पर वह दासी जो है, अपने लम्बे चौड़े लहंगा ओढ़नी को सम्हालती हुई जमीन पर बैठ जाती है।
मनोरमा - आओ बहिन आसन ग्रहण करो।
दूती - (धरती में बैठकर) कहो कुशल तो है, बड़ी उदास सी प्रतीत हो रही हो। चाँदसा मुखडा कैसा कुम्हला गया है ! ___मनोरमा - नहीं, ऐसी कोई बात नहीं। बहिन, दुःख है कि मैं तुम्हें पहिचान नहीं पाई। यह अकारण आत्मीय सा व्यवहार पाकर मैं कृतकृत्य अवश्य हूँ। क्या अपना परिचय देने की कृपा करोगी ? __दूती – क्यों नहीं। मैं इसी वैजयन्ती नगर के राजकुमार की निजी परिचारिका हूँ।
मनोरमा - (आश्चर्य से) राजकुमार की परिचारिका मेरे पास ! किस अभिप्राय से आई हो बहिन ?
दूती - लावण्यमयी सुन्दरी ! तुम्हारे पतिदेव तुम्हें ऐसी तरुण वय में त्यागकर विरहणी बनाकर चले गये। यह उन्होंने नितांत अनुचित कार्य किया है। घर में किस बात की कमी थी जो परदेश चल दिये। कदाचित् किसी सुन्दरी से प्रेम सम्बन्ध तो स्थापित......