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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-16/13 सुखानन्द - ओह प्रिये ! (विवश से होकर) मैं तुम्हें कैसे समझाऊँ। मैं तो स्वयं चाहता हूँ कि परम प्यारी अनिंद्य सुन्दरी अर्धांगिनी मनोरमा की अतुल रूपराशि निर्निमेष आँखों से सतत पीता रहूँ। परन्तु तुम्हें साथ ले जाने में....... असुविधा होगी; वह मुझे क्लांत कर पथ की बाधा बनकर अवरोध उत्पन्न करेगी। मनोरमा - नाथ ! आप गलत समझ रहे हैं। मैं मार्ग में बाधक न बन साधक बनूंगी। निश्चय मानिये, यह दासी आपको कष्ट न होने देगी। __ सुखानन्द - देवी ! तुम्हारी वाक्शक्ति अद्भुत है। मैंने अपनी पराजय स्वीकार कर ली। काश....मेरी विवशता पहिचान पातीं। मनोरमा- (पति की विवशता का अनुभव करते हुये ) अच्छा प्रियतम, आप सहर्ष निश्चिन्त होकर जाइये। मैं अपनी हठ से और अधिक परेशान नहीं करूँगी। नित्य प्रति आपकी मंगल कामना करती हुई, शीघ्रातिशीघ्र आपके शुभागमन की प्रतीक्षा करूंगी। सुखानन्द - प्राण वल्लभे ! मुझे तुमसे ऐसी ही आशा थी। मनोरमा - (आकाश की ओर निहारकर) ओह प्रियतम ! रजनी तो समाप्त भी हो चली। देखो, निशानाथ अस्ताचल की ओट में छिपने कैसी तेजी से चले जा रहे हैं। तारिकायें भी विकल प्रभाहीन सी लुप्तप्राय हो रही हैं। (मुर्गे की बांग सुनकर) अरे, ये ताम्रचूड़ भी बोल उठा। आप आज तनिक भी विश्राम न कर पाये। ___ सुखानन्द - प्रिये ! जीवन के कई वसंत देख चुका। आराम करते-करते तरुणाई भी आ गई। अब तो पुरुषार्थी बनना है। भोर हुआ ही चाहता है। जाऊँ प्रातःकालीन नित्य कर्मों से निवृत्त होकर माता-पिता से अनुमति एवं आशीर्वाद ले आज ही विदेश के लिए प्रस्थान कर दूँ, शुभस्य शीघ्रम्। तुम भी विदा दो। मनोरमा - (सजल नेत्रों से चरण छूकर) जाईये नाथ ! मेरी शुभकामना आपके साथ हैं।
SR No.032265
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 16
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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