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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-16/19
चौथा दृश्य वन का दृश्य । चारों तरफ झाझंखाड़ हैं। पवन सांय-सांय कर रही है। कभी-कभी भयंकर पशु-पक्षियों की आवाज वन की नीरवता को नष्ट कर देती है। यहीं मनोरमा असहाय एकाकी मूर्च्छित पड़ी है। परदा उठता है। ___ मनोरमा - (मूर्छितावस्था से उठकर) हाय ! अब मैं कहाँ जाऊँ ? (विलखती है) माताजी, तुमने एकबार मुझसे तो पूछ लिया होता। यदि सारथी ने दया कर यह सब वृतान्त न बतलाया होता तो मैं बिलकुल अनभिज्ञ रहती। कारण का कुछ भी पता न चलता....। हे प्रियतम ! मुझे भी क्यों न अपने साथ ले गये। मैंने लाख अनुनय-विनय की, परन्तु मुझे कष्ट न हो अतः घर पर ही छो..ड़ गये। (सिसकियाँ भरती है)...आह !....पर मुझ अभागिनता के भाग्य में सुख कहाँ..... बदा... था। हे मेरे जीवनाधार ! जिसे तुमने कभी फूलों की छड़ी से भी नहीं छुआ, आज वही दर-दर की भिखारिन बनके कंटको में बैठी है। हाय ! जब तुम लौटोगे तब सूनी अटारी देखकर क्या अवस्था होगी ? (फिर रोने लगती है) हे मृगराज ! मुझे भक्षण कर अपनी क्षुधा शान्त कर ले। कृतकृत्य हो जाऊँगी। हे जंगली पशुओं! दया कर मेरा जीवन समाप्त कर दो।.....इस कलंकी जीवन से मरण ही श्रेयस्कर है। वाह रे कर्म, तू जितने नाच नचाये सब थोड़े हैं। पर दोष किस पर दूं- ये कर्म भी तो मेरे द्वारा किए हुए ही है। जड़ कर्म का उदय तो निमित्त मात्र है। वासत्विक दुःख का कारण तो मेरा मोहभाव ही है।
प्रार्थना है इस विजन में मुझको, प्रभुवर शरण तुम्हारी। असहाय हूँ अकेली, दुख संकटों की मारी। था पाप कौनसा वह, जो अब उदय में आया। हा!शील पर कि जिसने, लाँछन बुरा लगाया। निर्दोषता प्रमाणित हो, प्रार्थना हमारी । है इस विजन में मुझको, प्रभुवर शरण तुम्हारी॥