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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१४/८७ शुभ भाव नहीं छुड़ाते थे, अपितु वे तो अनादिकाल से चली आ रही शुभ भाव में हितबुद्धि को छुड़ाने का उपदेश देते थे; क्योंकि पूर्ण शुद्धोपयोग बिना शुभ भाव छूटता नहीं है, शुभ भाव होता है; किन्तु शुभ भावों में ज्ञानी को आत्मबुद्धि नही होती। . इसलिए वे शुभ भाव करते-करते आत्मकल्याण हो जाएगा - ऐसी मान्यता को छोड़ने का उपदेश देते हैं।
और जहाँ तक पुण्य-पाप को जड़ कहने का सवाल है तो पुण्यपाप भावों में चेतनता नहीं है, इसलिए उसे जड़ कहते हैं। पुण्यपाप स्पर्श-रस-गंध-वर्णवाला जड़ नहीं है, अपितु उसमें ज्ञान नही है; इसलिए समयसार के जीवाजीवाधिकार में उसे अजीव तथा कर्ताकर्म अधिकार में जड़ कहा है। अतः स्वामीजी भी
पुण्य-पाप भाव में जानपना नहीं होने के कारण जड़ कहते थे। पुण्य वकील- ठीक है; मैं इतना ही पूछना चाहता था। धर्म वकील - ठीक है; पण्डितजी आप जा सकते हैं। देखा जज साहब, पुण्य
प्रकाश द्वारा लगाया गया यह इल्जाम कि सत्पुरुष कानजीस्वामी दया-दान-पूजादि रूप शुभ भाव को मानते ही नहीं, सरासर गलत और बेबुनियाद है; क्योंकि स्वयं उन्होंने इस बात की पुष्टि की है कि मोक्षमार्ग में शुभ भाव भूमिकानुसार देखने में आते हैं, इसलिए उसे परम्परा से मोक्ष का कारण कह दिया जाता है; परन्तु वास्तव में वह मोक्षमार्ग में हेय है, मोक्ष का कारण नहीं है। यदि मेरे काबिल दोस्त अपनी सफाई में अब भी कुछ कहना
चाहें तो कहें। पुण्य वकील- (निराशा पूर्वक) नो सर, दैट्स ऑल। जज - (कुछ लिखकर फैसला सुनाते हैं।) तमाम ठोस तथ्यों, अथाह
आगम प्रमाणों और प्रमाणिक गवाहों के बयानों को मद्देनजर रखते हुए अदालत इस निर्णय पर पहुँची है कि पुण्यप्रकाश का