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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१४/८६ धर्म वकील - तोशास्त्रीजी ! स्वामीजी के अनुसार मोक्षमार्ग में पुण्य का क्या
स्थान है ? पण्डितजी- स्वामीजी का कहना तो यह है कि भाई ! जिनेन्द्र भगवान के
दर्शन-पूजन भी न करे और तू अपने को जैन कहलावे ये तेरा जैनपना कैसा ? जिस घर में प्रतिदिन भक्तिपूर्वक देव-गुरुशास्त्र के दर्शन-पूजन होते हैं, मुनिवरों आदि धर्मात्माओं को आदरपूर्वक दान दिया जाता है वह घर धन्य है; इसके बिना तो घर श्मशान तुल्य है। अरे अधिक क्या कहें ? ऐसे धर्मरहित गृहस्थाश्रम को तो हे भाई ! समुद्र के गहरे पानी में तिजाञ्जलि दे देना; नहीं तो यह तुझे डुबो देगा। उनके इस कथन से सिद्ध है कि वे मोक्षमार्ग में पुण्य का स्थान तो मानते थे, परन्तु उस पुण्य में उपादेयबुद्धि - धर्मबुद्धि का निषेध करते थे; क्योंकि यदि यह जीव उसी में सन्तुष्ट हो जायेगा तो फिर कभी निर्विकल्प आत्मानुभूति शुद्धोपयोगरूप धर्म का अंगीकार नहीं कर सकेगा, इसलिये कभी-कभी तो वे मोक्षमार्ग
में उस पुण्य को जहर तक भी कह देते थे। धर्म वकील - प्वाइंट नोट किये जाएँ जज साहब ! क्या मेरे काबिल दोस्त भी
कुछ पूछना चाहते हैं ? पुण्य वकील- हाँ मैं भी कुछ सवालात करना चाहता हूँ। (पण्डितजी से)
पण्डितजी साहब ! हमने तो सुना है कि स्वामीजी पुण्य को छुड़ाते थे तथा पुण्य-पाप दोनों को जड़ बताते थे- ऐसा सुनकर
तो सभी शुभ भाव को छोड़ हीं देंगे। पण्डितजी - कौन मूर्ख कहता है कि स्वामीजी शुभ भाव को छुड़ाते थे, उन्होंने स्वयं भारतवर्ष के अनेक तीर्थों की वन्दना की है; पंचकल्याणक कराये हैं; गुजरात में जहाँ दिगम्बर जैनधर्म का कोई अस्तित्व ही दिखाई नहीं देता था, कोई दिगम्बर जिनमन्दिर दिखाई ही नहीं देते थे; आज वहाँ उनके प्रभाव और सदुपदेश से अनेक मन्दिरों का निर्माण हुआ है और आज वहाँ भी दिगम्बर जैनधर्म का अस्तित्व दिखाई देने लगा है। अत: इससे सिद्ध होता है कि गुरुदेव