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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१४/८० संक्लेश विशुद्ध सहज दोऊ कर्म चाल, कुगति सुगति जग जाल में विशेखिये। कारणादि भेद तोहि सूझत मिथ्यात मांहि, ऐसो द्वैतभाव ग्यानदृष्टि में न लेखिये। दोऊ महा अंधकूप दोऊ कर्मबंध रूप, दुहूं कौ विनाश मोख, मारग में देखिये। क्यों सुकृतकुमारजी क्या अब भी आप ये कहना चाहेंगे कि पुण्य और पाप अलग-अलग हैं ? सुकृतकुमार - चाहे जो भी हो भैया लेकिन पुण्य मोक्षमार्ग में तो उपादेय ही है; इसीलिए इसका कारण शुभ भाव भी मोक्षमार्ग में उपादेय है। बनारसीदासजी ने ये भी तो लिखा है - मोख के सधैया ग्याता देसविरति मुनीश, तिनकी अवस्था तो निरावलंब नाहीं है। धर्म वकील - सुकृतकुमारजी आप फिर अदालत को बहकाने की कोशिश कर रहे हैं, इसके आगे की लाइन में ही उसे दौर धूप कहते हुए कहा है कि - कहैं गुरु करम को नाश अनुभौ अभ्यास, ऐसो अवलंब उन्हीं को उन पाहीं हैं। निरुपाधि आतम समाधि सोई शिवरूप, और दौर धूप पुद्गल परछाहीं हैं। और आपने जो दौलतरामजी के बारे में कहा है; वह भी सरासर गलत तरीके से प्रस्तुत किया गया है। उन्होंने तो अनेकानेक भजनों में आत्मानुभव की ही महिमा गाई है। और कहा है - आपा नहिं जाना तूने कैसा ज्ञानधारी रे देहाश्रित कर क्रिया आपको मानत शिवमगचारी रे शिव चाहे तो द्विविध कर्म तैं कर निज परिणति न्यारी रे। क्यों सुकृतकुमारजी अब भी कुछ गुंजाइश है।
SR No.032263
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages92
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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