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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१४/७८ के कारण सुगति होती है। - इतने सारे भेद तो हमें सामने दिखाई देते हैं, फिर इनको एक कैसे कहा जा सकता है - ये कोई मेरे घर की बात नहीं है। पण्डित बनारसीदासजी ने स्वयं लिखा है कि - संक्लेश परिनामनिसौं पाप बंध होई, विशुद्ध सौ पुन बंध हेतु भेद मानिए। पाप के उदै असाता ताको है कटुक स्वाद, ___ पुन्न उदै साता मिष्ट रस भेद जानिए। पाप संक्लेश रूप पुन्न है विशुद्ध रूप, दुहूँ को सुभाव भिन्न भेद यों बखानिये। पाप सौ कुगति होई, पुन्न सौं सुगति होई, ऐसौं फल भेद परतच्छि परमानिए॥ इसलिये पुण्य और पाप को एक मानना जिनवाणी का विरोध करना है और जहाँ तक मोक्षमार्ग की बात है; वहाँ भी पुण्योदय के बिना मोक्षमार्ग मिलना संभव नहीं है और शुभ भाव के बिना मोक्षमार्ग में आगे बढ़ना संभव नहीं है। और दौलतरामजी ने तो यहाँ तक कहा है कि - घड़ी-घड़ी, पल-पल, छिन-छिन निशदिन, प्रभुजी का सुमिरन कर ले रे; प्रभु सुमरन तैं पाप कटत है, जनम-मरण दुःख हर ले रे॥ अर्थात् प्रभु का सुमिरन करने से; प्रभु भक्ति से हमारे पाप कटते हैं और जनम-मरण का दु:ख दूर होता है। पुण्य वकील- सभी प्वाइंट नोट किये जायें जज साहब पण्डित सुकृतकुमारजी ने साबित कर दिया है कि पुण्य-पाप अलग-अलग हैं। क्या मेरे काबिल दोस्त भी कुछ पूछना चाहेंगे ? धर्म वकील - यस माई लार्ड ! पुण्य वकील के गवाह सुकृतकुमार ने अदालत को गुमराह करने के लिये एकांगी और अधूरे बयान दिये हैं। पुण्य वकील- आब्जेक्शन योर आनर। जज - आब्जेक्शन सस्टेन्ट ।
SR No.032263
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages92
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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