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________________ (२) (३) जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१४/७४ प्रथमानुयोग और चरणानुयोग में व्रतादि, तीर्थयात्रादि को जो धर्म कहा है; वह परम्परा की अपेक्षा कहा है, व्यवहार की अपेक्षा कहा है; इस अनुयोग की शैली ही यही है कि पाप से छुड़ाकर पुण्य मार्ग में प्रवर्तन कराते हैं; परन्तु वास्तविक रूप से तो वीतराग भाव में ही धर्म है। २८ मूलगुणरूप चारित्र निश्चय से चारित्र नहीं है। वीतरागरूप शुद्धोपयोग रूप चारित्र ही निश्चय से चारित्र है। २८ मूलगुण तो शुभ भाव होने के कारण चारित्र की कमजोरी हैं, यदि इनको ही वास्तविक चारित्र मान लिया जाये तो आत्मानुभव का लोप होने से आगे के गुणस्थानों का ही लोप हो जाये। छठवें गुणस्थान में जोशुभरूप भाव हैं, वह मुनियों को ही होता है जो मोक्षमार्ग के अग्रणी पथिक हैं। लेकिन जज साहब आगम में यह भी आता है कि पुरुषार्थ की कमजोरी के कारण मुनियों को शुभोपयोग में आना पड़ता है और वह शुभोपयोग भी उनके सहज होता है; उनके लिये वह उपादेय नहीं है, यदि वे छठवें गुणस्थान में अन्तर्मुहूर्त से ज्यादा ठहरे तो गुणस्थान गिर जाये, उन्हें वहाँ ऐसा लगता है जैसे आग की भट्टी में गिर गये हों। और जहाँ तक तीर्थंकर प्रकृति की बात है, तो यह प्रकृति क्षायिक सम्यग्दृष्टि आत्मानुभवी जीवों को ही बंधती है और इस प्रकृति के बंधने से मोक्ष की गारंटी मिलती है - ऐसी बात नहीं है, मोक्ष की गारंटी तो पहले ही मिल जाती है जब आत्मानुभव होता है। अरे वकील साहब ये प्रकृति मोक्ष का कारण नहीं हैं, मोक्ष का कारण तो शुद्धोपयोग रूप धर्म है; और तो और जबतक इस प्रकृति का संयोग रहता है, तबतक जीव संसारी ही रहता है। इसे नष्ट कर ही मोक्ष जा सकता है। और जहाँ तक विनय पाठ की बात है तो मैं इसके लिए पण्डित स्वानुभव शास्त्री को बुलाने की इजाजत चाहता हूँ; जिन्होंने विनयपाठ,
SR No.032263
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages92
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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