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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१४/७३ धर्म वकील - तो आपका नाम भगवानदासजी है ? भगवानदास - मेरा नाम तो भगवानदास ही है, प्रभु की कृपा से। धर्म वकील - तो आप रोज चार पाँच घंटे पूजा-पाठ करते हैं। भगवानदास - हाँ जी ! ये तो साधारण बात है, प्रभु की कृपा से। धर्म वकील - लेकिन आप रोज पूजन क्यों करते हैं ? भगवानदास - लो ये भी कोई पूछने की बात है अरे रोज पूजन करने से अपने
ऊपर प्रभु की कृपा होगी, पुण्य बंधेगा, सब पाप कट जायेंगे और हमें मोक्ष मिलेगा। अरे वो सुना नहीं है आपने -
प्रभु सुमरन तैं पाप कटत हैं। धर्म वकील - भगवानदासजी यदि दया-दान-पूजा से ही मोक्ष जाते हैं, तो
जिन तीर्थंकरों को आप पूजते हैं वे सब दया-दान-पूजादिरूप शुभ भाव को छोड़कर आत्मा में क्यों रम गये और आपने यह
भी पढ़ा ही होगा - लीन भये व्यवहार में उक्ति न उपजै कोय । दीन भये प्रभु पद जपै मुक्ति कहाँ तै होय ॥ प्रभु सुमरो पूजो पढ़ो करो विविध व्यवहार । मोक्षस्वरूपी आत्मा ज्ञान-गम्य निरधार ।
क्यों भगवानदासजी बात समझ में आती है ? प्रभु की कृपा से। भगवानदास - वकील साहब ! ये बात आज तक मेरी समझ में क्यों नहीं आई;
प्रभु की कृपा से। धर्म वकील - अब तो आ गया समझ में आप जा सकते हैं और जज साहब!
मेरे काबिल दोस्त द्वारा दिए गए तर्कों का उत्तर इस प्रकार है - मनुष्य भव तो अनन्त बार अभव्य जीव भी प्राप्त कर लेता है
और मनुष्य भव ही क्या ! जैन कुल भी मिल जाता है, व्रतादि भी धारण कर लेते हैं, पर आत्मानुभव न होने के कारण सम्यक्त्व नहीं होता, मोक्षमार्ग नहीं खुलता।
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