SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 62
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१४/६० तब राम ने कहा – “जब कभी हम पर संकट आये, तब आप हमारी मदद करें।" यह वचन प्रमाण करके गरुडेन्द्र ने कहा – “अच्छा, तुम यही समझना कि मैं तुम्हारे पास ही हूँ।" केवली भगवान की वाणी सुनकर अनेक जीवों ने धर्म प्राप्त किया। राजा और प्रजाजनों ने नगरी में आकर आनंदपूर्वक उत्सव मनाया। केवलज्ञान के प्रताप से सर्वत्र आनंद-मंगल छा गया। भगवान की वाणी में ऐसा आया कि रामचन्द्रजी इसी भव से मोक्ष प्राप्त करेंगे। “श्री रामचन्द्रजी बलभद्र हैं, तद्भव मोक्षगामी है।" ऐसा केवली प्रभु की वाणी में सुनकर लोगों ने उनका बहुत सम्मान किया। मुनिवरों को केवलज्ञान उत्पन्न होने से उस भूमि को महा तीर्थरूप समझकर राम-लक्ष्मण-सीता बहुत दिनों तक वहीं रहे और महान उत्सवपूर्वक पर्वत पर अनेक मंदिर बनवाकर अद्भुत जिन-भक्ति की। उसी समय से यह पर्वत ‘रामटेक तीर्थ' के नाम से प्रसिद्ध है। गगनविहारी देशभूषण-कुलभूषण केवली भगवन्त दिव्य-ध्वनि से अनेक देशों के भव्यजीवों को धर्म का प्रतिबोध करते हुए अयोध्यानगरी में पधारे। तब फिर से उन मुनि भगवन्तों के दर्शन करके राम-लक्ष्मणसीता, भरत-कैकेयी आदि को बहुत हर्ष हुआ। उनका धर्मोपदेश सुनकर भरत ने दीक्षा ली और हाथी ने भी श्रावक व्रत अंगीकार किये। उसके बाद विहार करते हुए वे दोनों केवली भगवन्त कुंथलगिरी पधारे और वहाँ से मोक्ष प्राप्त कर सिद्धालय में विराजमान हुए। दोनों भाई संसार में अनेक भव साथ रहे और आज मोक्ष में भी साथ ही विराजमान हैं। उन केवली भगवन्तों को हमारा बारम्बार नमस्कार हो। कुंथलगिरि सिद्धक्षेत्र महाराष्ट्र में है, वहाँ से ये देशभूषण तथा कुलभूषण मुनिवर मोक्ष गये हैं। उनकी यादगार के लिये अभी भी पहाड़ के ऊपर उन दो भगवन्तों की सुन्दर प्रतिमायें हैं। सिद्धक्षेत्र बहुत रमणीय स्थान है। देशभूषण-कुलभूषण दोनों चार भव से सगे भाई थे। आप उनकी जीवन कथा पढ़कर अपने जीवन में आत्मसात कर उन जैसे बनने की भावना भाते हुए कल्याण मार्ग पर लगें यही इस कथा का उद्देश्य है। -
SR No.032263
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages92
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy