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जैनधर्म की कहानियाँ भाग - १४/५९
अनुभव कर रहे थे । बाहर क्या हो रहा है ? इस पर उनका लक्ष्य नहीं था । सीता यह दृश्य देखकर पुनः भयभीत हो गयी, तब राम ने कहा
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"देवी! तुम डरो मत, तुम इन मुनिवरों के चरणों में ही बैठी रहो, हम इन दुष्टों को भगा कर आते हैं । "
- ऐसा कहकर सीता को मुनि के चरणों के समीप छोड़कर रामलक्ष्मण ने दुष्ट असुरदेवों को ललकारा।
राम के धनुष की टंकार से ऐसा लगा मानो वज्रपात हो गया हो । लक्ष्मण की सिंह-गर्जना सुन करके अग्निप्रभ-देव समझ गया कि वे कोई साधारण मनुष्य नहीं हैं, ये तो महाप्रतापी बलदेव और वासुदेव हैं, अतः राम-लक्ष्मण का पुण्य - प्रताप देखकर वह अग्निप्रभदेव भाग गया और उसकी सब माया भी समाप्त हो गई तथा फिर से उपसर्ग दूर हुआ ।
उपसर्ग दूर होते ही ध्यान में लीन देशभूषण और कुलभूषण मुनिराजों को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई । तब केवलज्ञान के उत्सव को मनाने के लिए बहुत देव आये । चारों ओर मंगलनाद होने लगा। रात्रि भी दिव्य प्रकाश से जगमगा उठी । केवलज्ञान के प्रताप से रात और दिन में कोई भेद नहीं रहा । मानो रात्रि की छाया असुर कुमार देव के साथ चली गई हो ।
अहो, अपने सामने मुनि भगवन्तों को केवलज्ञान होता देखकर राम-लक्ष्मण-सीता के तो आनंद का पार न रहा । हर्षित होकर उन्होंने सर्वज्ञ भगवन्तों की भक्ति भाव से परम स्तुति की, दिव्यध्वनि द्वारा भगवान का उपदेश सुना । अहो, प्रभु के श्रीमुख से चैतन्यतत्त्व की कोई परम अद्भुत गंभीर महिमा सुनकर उनके आनन्द का पार न रहा । देशभूषण - कुलभूषण के पिता जो मरकर गरुडेन्द्र हुए थे, वे भी केवली भगवान के दर्शन करने के लिए आये । राम-लक्ष्मण से वे अत्यन्त प्रसन्न हुए और आदरपूर्वक बोले - “ये दोनों मुनि हमारे पूर्वभव के पुत्र हैं, तुमने इनकी भक्ति की और इनका उपसर्ग दूर किया - यह देखकर मैं बहुत प्रसन्न हुआ हूँ । इसलिए जो माँगना हो, वह माँगो, मैं वह दूँगा । "
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